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________________ 13४! શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ-વિશેષાંક [१५४ Sniith's Early History of India, Page 114 में और डोक्टर शेषागिरि राव ए. ए. आदिने मगध के नन्द राजाओं को जैन लिखा है। क्यों कि जैनधर्मी होने के कारण वे आदीश्वर भगवान की मूर्ति को कलिङ्ग से अपनी राजधानी मगध म ले गये । देखिये-South Thain Jainism Vol. II, Page 82 इस से प्रतीत होता है कि पूजन और दर्शन के लिये ही जैन मृति ले जाकर मन्दिर बनवाते होंगे । महाराजा खारवेल के शिलालेख से स्पष्ट प्रकट होता है कि नन्दवंशीय नृप जैन थे। ___सम्राटू चन्द्रगुप्त के विषय में भी इतिहासज्ञों ने कुछ समय तक उसे जैन स्वीकृत नहीं किया। परन्तु खोज करने पर ऐसे प्रबल ऐतिहासिक प्रमाण मिले जिससे उन्हें अब निर्विवाद चन्द्रगुप्त को जैन स्वीकृत करना पडा। परन्तु श्री सत्यकेतुजी विद्यालङ्करने ‘मौर्य साम्राज्य का इतिहास' म चन्द्रगुप्त को यह सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है कि वह जैन नहीं था। परन्तु चन्द्रगुप्त की जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा, जैन मन्दिरों की सेवा, एवं वैराग्य में रञ्जित हो राज का त्याग देना और अन्त में अनशनव्रत ग्रहण कर समाधि-मरण प्राप्त करना उसके जैन होने के प्रबल प्रमाण है। विक्रमीय दूसरी तीसरी शताब्दी के जैन ग्रन्थ और सातमी आठमी शताब्दी के शिलालेख चन्द्रगुप्त को जैन प्रमाणित करते हैं। रायबहादुर डो. नरसिंहाचार्यने अपनी 'श्रवणबेलगोल' नामक इंग्लिश पुस्तक में चन्द्रगुप्त के जैनी होने के विशद प्रमाण दिये हैं। डाक्टर हतिलने Indian Antiquary XXI 59-60 में तथा डोक्टर टामस साहब ने अपनी पुस्तक Jainism the Early Faith of Asoka, Page 23 में लिखा है कि चन्द्रगुप्त जैन समाज का एक योग्य व्यक्ति था। डाक्टर टामस रावने एक और जगह यहां तक सिद्ध किया है-कि चन्द्रगुप्त के पुत्र और पौत्र बिन्दुसार और अशोक भी जैन धर्मावलंबी हो थे । इस बात को पुष्ट करने के लिये जगह जगह मुद्रा राक्षस, राजतरंगिणो और आइना-ए-अकबरी के प्रमाण दिये। हिन्हु इतिहास, के सम्बन्ध में श्री वी. ए. स्मिथ का निर्णय प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने सम्राट चंद्रगुप्त को जैन ही स्वीकृत किया है। डाक्टर स्मिथ अपनी Oxford History of India में लिखते हैं कि चंद्रगुप्त जैन था इस मान्यता के असत्य समझने के लिये उपयुक्त कारण नहीं है। मैगस्थनीज (जो चंद्रगुप्त की सभा में विदेशी दृत था) के कथनों से भी यह बात झलकती है कि चन्द्रगुप्त ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विपक्ष में श्रमणों (जैनमुनियों) के धर्मोपदेश को स्वीकार करता था । मि. ई. थामस का कहना है-कि चंद्रगुप्त के जैन होने में शंकोपशंका www.jainelibrary.or For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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