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________________ अ १-२] ચમકતે સિતારે कराया, शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय, उपचार के लिये चिकित्सालय आदि का प्रवन्ध किया। डाक की भी उचित व्यवस्था थी। चंद्रगुप्त के राज्य में बाल, वृद्ध, व्याधिपीडित, आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों का पालन पोषण राज्य की ओर से होता था, इस प्रकार प्रजा को सन्तुष्ट रखने के लिये चंद्रगुप्तने कोई कमी नहीं रखी थी। एवं उसका राष्ट्र सबसे शक्तिशालो राष्ट्र था। सम्राट चन्द्रगुप्त के विषय में इतिहासलेखक कुछ भ्रमपूर्ण विचार रखते हैं। कोई लिखते हैं कि चन्द्रगुप्त शूद्रा का लडका था। राय साहब पं० रघुवर प्रसादजी ने अपने 'भारत इतिहास' में चन्द्रगुप्त को 'मुरा' नामक नाइन का लडका लिखा है, डाक्टर हूपर ने तो चन्द्रगुप्त और चाणक्य को ईरानी लिखने की भारी भूल की है, जिसे इतिहासज्ञ प्रामाणिक नहीं मानते । प्रो. वेदव्यासजी अपने प्राचीन भारत' में लिखते हैं, कि विश्वसनीय साक्षियों के आधार पर यह सिद्ध हो गया है कि चन्द्रगुप्त एक क्षत्रिय कुल का कुमार था। बौद्ध साहित्य के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'महावंश' के अनुसार चन्द्रगुप्त का जन्म मोरिय जाति में हुआ था। श्री सत्यकेतु विद्यालङ्कारजी ने भी अपने 'मौर्य साम्राज्य का इतिहास' में इस सम्मतिको महत्त्व दिया है। ' राजपुताना गजेटियर ' में 'मोरी वंश' को एक राजपूत वंश गिना है, अस्तु, जो हो अधिकांश इतिहास उस निर्णय पर पहुंच गये हैं कि वह शूद्रा का पुत्र नहीं था। हां, धर्म की आड़ में चन्द्रगुप्त को शूद्रा का पुत्र कहने का साहस किया गया हो, ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि चन्द्रगुप्त जैन था, ब्राह्मणों को जैनधर्म से द्वेष था, वह इसको समुन्नति सहन नहीं कर सकते थे । चन्द्रगुप्तने कन्धार, अबिस्तान, ग्रोस, मिश्र आदिमें जैनधर्म का प्रचार किया है, इस लिये ब्राह्मणो का जैन प्रचारक को शूद्र कहना साधारण बात थी। तत्कालीन ब्राह्मणों ने कलिङ्ग देश के निवासियों को ' वेदधर्म विनाशक' तो कहा ही, साथ ही उस प्रदेश को अनार्य भूमि कह कर हृदय को सन्तुष्ट किया, उनकी कृपा से चन्द्रगुप्त को शूद्र का पुत्र कहा जाना आश्चर्य नहीं। 'राजा नन्द' के विषय में भी ऐसा ही विवाद उपस्थित होता है, कई इतिहासज्ञों ने उसे नीच जातिका लिख डाला है, परन्तु कुछ इतिहासज्ञ उस निर्णय पर पहुंच गये हैं कि वह जैन था, पंजाबकेसरि लाला लाजपतरायजी ने उसको स्पष्ट करते हुए अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' में लिखा है,-"कहते हैं नन्द राजा नोच जाति के थे" शायद यही कारण हो कि वे ब्राह्मणों और क्षत्रियों के विरोधी थे। मुनि ज्ञानसुन्दरजी महाराजने 'जैनजातिमहोदय' में सिद्ध किया है, कि नन्दवंशी सभी राजा www.jainelibrary.a For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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