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________________ [ ३५८ ] श्री सत्य | [१५४ बरदाश्त कर सकता था! उसी क्षण यहां से उठा और दृढ निश्चय किया कि "जहां तक सिंह को मार कर सिद्धाचलजी की यात्रा मुक्त न करूंगा घर न लौटूंगा।' उपर्युक्त प्रतिज्ञा करके विक्रमसी अपने कपड़े धोनेकी मुगदर लेकर घर से निकला। मार्ग में जो स्नेही मिलते वे भी साथ हो गए। और आपस में कहते थे देखो विक्रमसी सिद्धाचलजी की ढूंक पर रहे हुए सिंह को मारने जा रहा है। इस पर कोई कोई उसकी मज़ाक उडाते, परन्तु उनको इस बातका कहां ख्याल था कि यह कोई साधारण बात नहीं थी। यहां तो प्राणों की बाजी लगाने का सोदा था, यदि कर देकर जाना होता तो कई कायर वीरता की बाजी मार लेते। विक्रमसो सिद्धाचलजी की तलेटी के नीचे आकर वहां ठहरे हुए यात्रियों के संघ एवं स्नेहियोंको इस प्रकार कहने लगा कि, मैं पहाड़ के ऊपर रहे हुए सिंह को मारने जाता हूँ सिंह को मारकर मैं घंटा बजाऊँगा उसकी ध्वनि सुनकर आप समझ लेवें कि, मैंने सिंह को मारा डाला है। यदि घंटे की ध्वनि सुनाई न दे तो मुझे मरा हुआ समझे। ऐसा कह कर विक्रमसीने वहां ठहरे हुए जनसमुदाय को भावयुक्त नमस्कार किया और उन को विदा ले पहाड़ पर चढना आरम्भ किया। सब यात्रीगण अनिमेष दृष्टि से उसकी और देख रहे थे। देखते देखते विक्रमसी अदृश्य हो गया। विक्रमसी सिंह मारने की प्रबल भावगा को लेकर एक के बाद एक पहाडी टेकरीयाँ पार कर रहा था। गरमी एवं श्रम के कारण उसके कपड़े पसीनेमें तरबतर हो गये थे। ज्यों ज्यों वह ऊपर चढता था, त्यों त्यों उसकी भावना भी आगे बढकर प्रबल होती जाती थी। इस प्रकार विक्रमसी पहाड़ की चोटी पर चढ गया। समय ठीक मध्यान का था। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तेजी का क्या कहना? वनराज शान्ति लेने के लिए एक वृक्ष की शीतल छाया के नीचे निश्चिन्त सो रहा था। विक्रमसी उसके निकट पहूँचा और अपने हृदय में कहने लगा कि, सोते हुए पर वार करना निर्बल तथा कायरों का काम है । अतः उसने सिंहको ललकार दिया । सिंह अपनी शान्ति- भंग करनेवाले की ओर लपका, विकमसी तो उसका प्रतिकार करने को तैयार ही था। उसने भी शीघ्रता से अपने हाथ में रही हुई मुगदर का उसके मस्तक पर एक ही ऐसा वार किया कि सिंहकी खोपड़ी चूर चूर हो गई। उसके सिर से रक्तधारा बहने लगी, तथापि वह पशुओं का राजा था। वह भी अपना बदला लेने को उद्यत हुआ। वह खड़ा हुआ और विमक्रसी की ओर झपटा। विक्रमसी सिंह को मरा हुआ समझ घण्टे की और दौडा, जहां घंटा वनाने जाता है इतने ही में तो सिंहका एक ही पंजा विक्रमसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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