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________________ 3०८] શ્રી જિન સત્ય પ્રકાશ [१४ - - देखो)। यद्यपि यह खुदाइ (नकशा) विस्तार पूर्वक संशोधित नहीं है। स्मारक लेख (खुदाइ) चालिस पंक्तियोंमें लिखा हुआ है और अनेक स्थानों पर मिटा हुआ है। स्मारक लेख का संक्षिप्त तोरसे यह अभिप्राय है कि एक इन्द्रराजा जो श्रीमाल जाति और राकमाना (राक्यान) गोत्र के थे तीन तीर्थकरों की मूर्तियां बनवाइ अर्थात् एक पार्श्वनाथ की पाषाण की मूर्ति अपने पिताके नामपर, दुसरी चन्द्रप्रभ की मूर्ति अपने खुद के नाम पर और तीसरी ऋषभदेव की अपने भाई अजयराजा के नाम पर बनवाई और उनको विमलनाथ की मूर्ति के साथ, जो मन्दिर के मुख्य नायक लिख गये हैं स्थापित की । ये ( मूर्तियां) इन्द्रविहार तथा महोदयप्रासाद नाम के मन्दिर में स्थापित की गई थीं। इस मन्दिर को उन्होंने (इन्द्रराजा) खुद वैराट में बडी लागत बनवाया था । मन्दिर की असली प्रतिष्ठा सिरी हीरविजयसूरीने अपने शिष्य कल्याणविजयगणि सहित की थी। यह (सूरी) संत पुरुषों के हृदय रूपी पवित्र भूमि में आत्मिक ज्ञान का बीज बोने की विद्या में दक्ष थे । इस पवित्र कार्य (प्रतिष्ठा) की तिथि-इतवार साका साल १५०९ फाल्गुन महिना की चांदनी पक्ष की २ ( सूदी २) थी। उस समय मुगलसम्राट अकबर का राज्य था। विक्रम का दिया हुआ साल बिलकुल मिट गया है। तीन से ग्यारह तक की पंक्तियोंमें अकबर की प्रशंसा की गइ है, जिसने (अकबरने) अपनी वीरतासे चारों दिशाओं के घेरे को रोशन कर दिया था, जिसने अपने विरोधियों के विचारों का अंधकार भगा दिया था और प्राचीन राजाओं (जैसे) नल, रामचंद्र, युधिष्ठिर और विक्रमादित्य की भांति उच्च कोटी की प्रसिद्धि प्राप्त की थी। श्रीहीरविजयसूरिके चतुराइ पूर्वक विस्तारसे दीये हुए ईश्वर भक्ति के वर्णन ने इस बादशाह पर इतना प्रभाव डाला और मन में इतनी करुणा पैदा करदी के उन्होंने (बादशाहने) सर्वभांति के जानवरों की सुरक्षता (अमारो-जानवरों का वध बंद करनेका यह हुकुम १५८२ ए. डी. में निकला था, स्मिथ की 'अकबर दी ग्रेट मुगल' पेज १६७ देखो) हमेशा के लिये और उसके राज्य के सर्व भागों में साल के १०६ दिनके लिए मंजूर की थी-अर्थात् पर्युषणा पर्व पर १८ दिनके लिए, बादशाह की सालगिरह के उत्सव पर ४० दिन के लिये, और वर्ष के ४८ इतवारों के लिये (यह मंजूरी थी) । स्मारक लेख के दूसरे संग्रहमें दानी इन्द्रराज के वंशका वर्णन (वंशावलि) दिया हुआ है। हमें (लेखक) इससे अधिक समाचार मिले हैं-कि इन आचार्य को हुमायूं के बेटे जलालुद्दीन अकबरने जगद्गुरु का प्रसिद्ध खिताब, पुस्तकोंका भंडार, कैदियों के लिए क्षमापत्र दिया था। बादशाह के चरण कश्मीर, कामपुरा, काबुल, बदकशन, धिली, मरूस्थली (मारवाड), गुजरात, मालवा आदि के नरेशों से पूजे जाते थे। यहां पर यह बात नोट (टीप) करने योग्य है कि श्रीहीरविजयसूरि का सम्राट अकबर www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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