________________ [28] શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ [15. वली में है जो श्री बर्द्धमानसरिजी से जिनपद्मसूरिजी तक तीन भागों में शेष होती है। प्रथम भाग सुमतिगणि की गणधर सार्धशतक की बृहवृत्ति का है, दूसरा भाग श्री जिनपालोपाध्याय कृत जिनपतिमूरि चरित्र का है। इस जीवनचरित्र में महोपाध्यायजीने अपने नजरों देखी बातें लिखी हैं, क्यों कि उनकी दीक्षा सं. 1225 में पोहकरण में श्री जिनपतिसरिजी के करकमलों से हुई थी। सं. 1269 में जावालिपुर में उनका उपाध्याय पद हुआ और स. 1311 में पालनपुर में जिनपालोपाध्याय स्वर्गवासी हुए / वे अपने गुरु श्री जिनपतिमूरिजी के जीवनचरित्र में लिखते हैं कि 'सं. 1234 फलवद्धिकायां विधिचैत्ये पार्श्वनाथ : स्थापितः” इस प्रतिष्ठा के समय श्री जिनपालजी को दीक्षा लिये 9 वर्ष होगए थे, ये प्राय : अपने गुरु के साथ विचरे हैं, अतएव इससे बढकर प्रामाणिक ग्रन्थ और क्या हो सकता है ? अब यह निस्सन्देह प्रमाणित हो जाता हैं कि पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा सं. 1234 में खरतरगच्छाचार्य श्री जिनपतिसूरिजीने की थी। सतरहवों शताब्दी के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ " कर्मचन्द्र मन्त्रि वंश प्रबन्ध" में लिखा है कि मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र सं. 1646 के लगभग जब बीकानेर का त्याग कर मेडता में रहते थे तब उन्होंने फलौधी में श्री जिनदत्तमूरिजो और श्री जिनकुशलसूरिजी के स्तूप निर्माण करवाए थे। किन्तु इस समय उन पूज्य स्तूपों का कोई पता नहीं है। मारवाड की भूमि भूकम्प आदि प्राकृतिक कोप से प्राय : सुरक्षित है अतएव यवनों के उत्पात के सिवाय दूसरा कोई भी कारण प्रतीत नहीं होता। न जाने कितना भव्य शिल्प अनार्यो के प्रबल हाथों से धराशायी हो गया ! इस समय फलौधी पार्श्वनाथजी में जो दादाबाडी विद्यमान है वह धर्मशाला के अन्दर ही नवीन बनी हुई है। सं. 1965 में मेड़ता निवासी भड़गोतया गोत्रीय श्रावक कर्णमलजी ने बनवाई हुई है। अतः प्राचीन स्तूपों का पता लगाना आवश्यक है। __ संख्याबद्ध जन तीर्थ जो प्रकृतिदेवी के अन्तस्थल में विलीन हो गये उन्हें खोजने व वर्तमान तीर्थो का प्रामाणिक इतिहास निर्माण करने व शिलालेखों का संग्रह करके प्रकाश में लाने के लिए वर्तमान युग का वायुमण्डल प्रेरणा करता है। जैनों को इस और खूब तमन्ना से संलग्न हो कर अपने पूर्वजों की कीर्तियां चमका देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org