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________________ [१७०] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ-વિશેષાંક [વર્ષ : पविभत्ती ३ अंगचूलिया ४ वग्गचूलिया ६ अरुणोववाए ७ वरुणोववाए ८ गरुलोववाते ९ वेलंधरोववाते १० वेसमणोववाते । व्यवहार सूत्रमें कितने वर्षाकी साधुपर्यायवाला कौनसा आगम पढ सके इसके उल्लेखमें निम्नोक्त आगमोके नाम हैं: ३४आयारकप्प । ४ सुयगड । ५ दसा, कप्प, ववहार । ८ ठाण, समवायांग (टी. वर्षपर्याय ६ से ९)। १० विवाह ( पन्नत्ति)। ११ 'खुड्डियाविमाणपविभत्ती, महल्लयाविमाणपविभत्ती, अंगचूलिय, वग्गचूलिया, विवाहचूलिया ( भाष्ये-महाकल्प टी. उपासकदशादि ५-५)। १२ ५अरुणोववाए, गरुलोववाए, वरुलोववाए वेसमणोववाए, वेलंधरोववाए । १३ उठाणसुए, समुट्ठाणसुए, देविंदोववाए, णागपरियावणियाए। १४ सुमिणभावणा (टी. महास्वप्नभावना ) १५ चारणभावणा । १६ तेअनिसग्ग । ३. १ विपाकसूत्र (११ वां अंग), २ सातवां अंग, ३ आठवां अंग, ४ नवमा अंग और ५ दशाश्रुतस्कंध; इन उपर्युक्त पांच उपलब्ध ग्रंथों में नं. ५ के अध्ययन उपरके उल्लेखानुसार ही हैं । नं. १,२,३,४ के अध्ययनों के क्रम व नामोंमें फेरफार है वह विचारणीय है । नं. ६,७,८,९,१० ये पांचों अनुपलब्ध हैं। नं. ६ के नामसाम्यानुसार प्रश्नव्याकरण दसवां अंग माना जाता है, पर समवायांगसूत्रके उल्लेखानुसार नहीं मिलता है । टोकाकारने भी लिखा है-'प्रश्नव्याकरणदशा इहोक्तरूपा न दृश्यंते, दृश्यमानास्तु पंचाश्रवपंचसंवरात्मिका इति' । नं. ७,८,९,१० के स्वरूपसे भी टीकाकार अज्ञात थे, याने वे बहुत पहलेसे विच्छिन्न हैं। टीकाकार लिखते हैं-'तथा बंधदशा-विगृद्धिदशा-दीर्घदशा-संखेपिकदशाश्चास्माकमप्रतीता इति' । नं. ८ का स्वप्नों संबंधी वर्णनवाला 'महासुमिणभावणा' होगा । नं. ९ के कई अध्ययन निरयावलिकामें हैं, छठा अध्ययन 'दीपसागर प्रज्ञप्ति' होगा । इनके तथा नं. १० के अध्ययनोंके नाम नंदी, पक्खि तथा व्यवहारसूत्र में आते हैं । इसी प्रकार समवायांगमें भी कई आगमों की अध्ययनसंख्या आदिका जिक्र है। वर्तमानमें उन उन ग्रंथोंके उतने व उन नामोंके अध्ययन हैं या नहीं यह भी मिलान करना परमावश्यक है। ४. यह अंक साधुपर्यायके वर्षके सूचक हैं । ५. स्थानांगके उल्लेखानुसार ये १० ग्रन्थ स्वतंत्र न हो कर 'संक्षेपित दशा' के १० अध्ययनरूप थे । व्यवहारसूत्रमें भी इन्हें अध्ययन कहा है। ६. स्थानांगके उल्लेखानुसार यह 'दोगेहिदसा' का अध्ययन विशेष होगा, या उन्हींके आधारसे रचा गया होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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