________________ जिन सूत्र भाग : 2 अनेक पहलू हैं। सत्य एकांत नहीं है। जो कहता है, मैं ही सत्य, सोए होते हैं। शास्त्र तो बस शास्त्र हैं। किताब किताब है। वह यह कहने से ही असत्य हो जाता है। ज्यादा से ज्यादा इतना | किताब में कुछ भी नहीं होता। ही कहना, 'मैं भी सत्य।' 'मैं ही सत्य-असत्य हो गया। खोजो कहीं जीवित व्यक्ति को। किसी को खोजो, जिसके मैं भी सत्य, और भी सत्य हैं। पास तुम्हारी आंखें आकाश की तरफ उठने लगें; जिसकी लेकिन अहंकार दावा करता है, 'मैं ही सत्य।' 'भी' पर अभीप्सा तुम्हें भी संक्रामक रूप से पकड़ ले; जिसके बवंडर में अहंकार का जोर नहीं है, 'ही' पर जोर है। महावीर का जोर तुम भी थोड़े उड़ने लगो। 'भी' पर है। इसलिए महावीर तो कहते हैं कि वह व्यक्ति भी, ...जाग्रत व सिद्ध पुरुषों के बाबत बताए जाने पर भी वे जो तम्हारे बिलकल विपरीत बोल रहा हो. उसकी भी बात उनकी ओर उन्मख नहीं होते।' ध्यानपूर्वक सुनना। उसमें भी कुछ सत्य होगा। अंश तो होगा दुनिया में सबसे कठिन बात वही है : जाग्रत पुरुषों की तरफ ही, कुछ तो होगा ही। उन्मुख होना। उसका मतलब है, अपने से विमुख होना। जाग्रत यहां पापी से पापी व्यक्ति में थोड़ा संतत्व होता है और यहां पुरुष के सन्मुख होने का एक ही उपाय है, अपने से विमुख संत से संत व्यक्ति में थोड़ा पापी होता है। यहां कोई पूर्ण तो होता होना। जो अपनी तरफ पीठ करे, वही जाग्रत पुरुष की तरफ मुंह नहीं। इसलिए तो हम कहते हैं इस देश में कि जो पूर्ण हो गया, | कर सकता है। बारा नहीं आता। पर्ण होते से ही फिर दबारा आने का उपाय लेकिन अगर अभी तम उतनी हिम्मत नहीं कर पाओ तो कुछ नहीं। यहां तो आना हो तो थोड़ी अपूर्णता रखनी होती है। आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह होता है कि तुम इसी में अकड़ जैन कहते हैं—जैन दर्शन; बड़ा महत्वपूर्ण दर्शन है-वह अनुभव करते हो। जानना चाहिए कि मैं अभी दीन-हीन। अभी कहता है, तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध करना पड़ता मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं कि सूरज की तरफ सीधी आंखें करके है। वह भी पाप है। तीर्थंकर होने के लिए भी तीर्थंकर कर्मबंध देखू। अभी तो मैं सूरज की तस्वीरें ही शास्त्र में बनी हैं, उन्हीं को करना पड़ता है। दूसरों पर करुणा की वासना रखनी पड़ती है तो देख पाता हूं। अभी तो उन्हीं तस्वीरों में मन को लुभाता हूं। मेरी ही कोई तीर्थंकर हो सकता है, नहीं तो तीर्थंकर भी नहीं हो हिम्मत नहीं। मैं कमजोर हूं। अभी मेरा बल नहीं। इतना साहस सकता। दूसरों की सहायता करूं. इतनी वासना तो बचानी ही | नहीं इस यात्रा पर निकलने का। अभियान पर जाने का दुस्साहस पड़ती है। नहीं तो तीर्थंकर भी कैसे होगा? अभी मुझसे होता नहीं। इसलिए सभी सिद्ध पुरुष तीर्थंकर नहीं होते। अनेक सिद्ध अगर तुम विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करो तो कोई खतरा नहीं पुरुष तो सिद्ध होते ही विलीन हो जाते हैं महाशून्य में। थोड़े-से है। एक न एक दिन साहस भी इकट्ठा हो जाएगा। लेकिन | सिद्ध पुरुष तीर्थंकर होते हैं। वे, वे ही सिद्ध पुरुष हैं, जिनकी आदमी अपने अहंकार को बचाता है। वह यह नहीं कहता कि सिद्धि में थोड़ी-सी वासना भी जड़ी है अभी, कि दूसरों की यह मेरी कमजोरी है कि मैं शास्त्र देख रहा हूं। वह अपनी सहायता करूंगा। जिनको अभी इतना और भाव बचा है, वे कमजोरी को भी आभूषणों से अलंकृत करता है, शृंगार करता तीर्थंकर की तरह पैदा होते हैं। शुभ है कि इतनी वासना कुछ | है। वह कहता है, यही सत्य है, इसलिए कहां, कौन सिद्ध लोग बचाते हैं, अन्यथा जगत बड़ा अंधेरे से भर जाए। | पुरुष? कहीं कोई सिद्ध पुरुष नहीं। पंचम काल में होते ही "जैन मानते हैं कि जिन-शासन के अतिरिक्त सभी शासन | नहीं। हो चुके वक्त ! जा चुका समय, जब सिद्ध पुरुष होते थे! मिथ्या हैं।' बिलकुल ठीक मानते हैं और बिलकुल गलत | वह महावीर के साथ ही बंद हो गया। महावीर के बाद हम व्यर्थ कारणों से मानते हैं। ही जी रहे हैं। महावीर के बाद कुछ घट ही नहीं रहा। इतिहास 'इसलिए दूसरे शासन में जाना नहीं चाहिए।' जिनपुरुष मिल रुक गया वहीं। महावीर के बाद दुनिया रही ही नहीं है। महावीर जाएं तो जाने की जरूरत भी नहीं है। क्या मरे, सब मर गया। महावीर क्या गए, सब गया। सब जैन शास्त्र में मत अटके रहना। शास्त्र न तो जागे होते हैं. न | संभावना, सत्य को पाने की सारी सविधा, सब चली गई। 488 Jal Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org RA