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________________ आज लहरों में निमंत्रण ऐसे कैसे होगा कि न पाओगे? पत्थर भी पड़ा दिखाई पड़े, और जाता है। वे सब जुड़े हैं। हृदय तो कहीं नहीं ले जाता। वहीं थोड़े ज्यादा गौर से देखना। फूल में जरा जल्दी दिख जाएगा, छोड़ देता है जहां तुम सदा से हो। न मंदिर, न वेश्या; न धन, न पत्थर में जरा और गहरे छिपा है। मगर छिपा तो है ही। धर्म; न भोग, न त्याग। ऐसी अपनी आंख को निखारते चलो। ऐसी अपनी दष्टि को / इसलिए तो महावीर कहते हैं धर्म-अधर्म दोनों के पार जाना साफ करते चलो। | है। पाप-पुण्य दोनों के पार जाना है। तुम सोचते हो पाप की आवाज मन की और पुण्य की हृदय पांचवां प्रश्न : मन की आवाज कौन-सी है और हृदय की | की? नहीं, दोनों मन की ही हैं। सब आवाजें मन की हैं। मन आवाज कौन-सी है? जानने की कसौटी क्या है? कृपया व्यर्थ ही ऊहापोह में लगा रहता है। समझाएं। कुछ कटी हिम्मते-सवाल में उम्र कुछ उम्मीदे-जवाब में गुजरी मन की ही सब आवाजें हैं, हृदय की कोई आवाज नहीं। जहां और ऐसे ही मन समय को गंवाता रहता है। इधर पूछता, इधर आवाजें खो जाती हैं, वहां हृदय है। खोजता है। उत्तर भी बना लेता, फिर उत्तर में से दस नए प्रश्न मौन है हृदय की आवाज। बना लेता। फिर प्रश्नों में से दस उत्तर खड़े कर लेता। ऐसा शून्य है हृदय का स्वर। बुनता जाता मकड़ी का जाला। अपने में से ही निकाल-निकाल इसलिए झंझट बिलकुल नहीं है। तुम सोचते हो, कोई आवाज | कर जाले को बुनता चला जाता है। मगर यह सब मन का ही हृदय की और कोई मन की; तो तुम बड़ी गलती में पड़े जा रहे | खेल है। हो। सब आवाजें मन की हैं। यह मन ही है। __ तुम पूछते हो हृदय की आवाज कौन-सी? हृदय की कोई धन को भी मन ही पकड़ना चाहता है और धन को मन ही | आवाज नहीं। जब सब आवाज तिरोहित हो जाती है तो जो त्यागना चाहता है। मन बड़ा जटिल है। एक तरफ कहता है, | सन्नाटा शेष रह जाता है, वही हृदय का है। उस सन्नाटे में ही तुम्हें पकड़ लो, लूट लो मजे। दूसरी तरफ कहता है क्या रक्खा? | दिखाई पड़ेगा, दर्शन होगा। उस शून्य में ही पूर्ण का अवतरण सब असार है। होता है। पर दोनों मन हैं। एक तरफ कहता है दौड़ लो। चार दिन मिले जिंदगी के, कुछ पा लो पद। दूसरी तरफ से कहता है, क्या रखा | आखिरी प्रश्न: आपने एक दिन कहा था कि इधर तुम कृष्ण है पदों में? जो पहुंच गए उनको तो देखो। हुए कि उधर रास सजा। मैं इस बात पर झूम तो उठा था, मन अपने से ही एकालप करता रहता है, मोनोलाग करता | लेकिन जब कृष्ण का भाव करना चाहा तो मुझमें गोपियों का रहता है। एक तरफ से जवाब देता है, एक तरफ से उत्तर खड़ा | भाव भर गया। और इस भाव ने मुझे और भी आह्लाद से भर करता है। पर दोनों आवाजें मन की हैं। दिया। जैसे कृष्ण के आगे रास-मंडल रचाया था, वैसे ही यास कहती है कुछ, तमन्ना कुछ आपके सन्मुख होने लगा। किंतु आपके रास सजाने का भाव किसकी बातों का एतबार आए क्या था? फिर धीरे-धीरे तुम्हें जो-जो समझाया गया है कि शुभ है, सत्य है, अगर मन वही कहता है तो तुम सोचते हो, यह हृदय की | यही था, जो हुआ। जो हुआ, बिलकुल यही था। आवाज है। जब मन कहता है वेश्या के घर चलो तो तुम कहते | कृष्ण के साथ रास रचाना हो तो गोपी बनना ही पड़ेगा। गोपी हो, यह मन की, इंद्रियों की, शरीर की। और जब मन कहता है | बन-बनकर एक दिन कृष्ण भी बन जाओगे, लेकिन गोपी बनने मंदिर चलो, तुम कहते हो, यह आत्मा की, हृदय की। से गुजरना ही पड़ेगा। गोपी बनना कृष्ण होने के रास्ते पर पड़ाव गलती बात है। जो वेश्या के घर ले जाता है वही मंदिर भी ले | है। जो गोपी बनने को तैयार नहीं वह कृष्ण कभी न बन पाएगा। 4991 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340155
Book TitleJinsutra Lecture 55 Aaj Laharo me Nimantran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size52 MB
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