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________________ जिन सूत्र भाग : 2 न तो ब्राह्मण के शंखनाद की आवाज जगाने को है। ध्यान जिसका सध गया, हिमालय सध गया भीतर। तुम न आहंगे-हुदी-ख्वानी गौरीशंकर पर विराजमान हो गये भीतर। फिर तुम बीच बाजार में और न कुरान का पाठ है। न सुबह पढ़नेवाली अजान है। कोई बैठे रहो, तो अंतर नहीं पड़ता। जिसका ध्यान सध गया, उसे जगाने को नहीं। नींद के हजार उपाय हैं। जगानेवाले खुद गहरे फिर कोई विघ्न न रहा, कोई बाधा न रही। ध्यान बड़ी से बड़ी सोये हैं। संपदा है। शांति का, आनंद का एकमात्र आधार है। मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं। तुम दूसरे के द्वारा जल्दी ही परेशान हो जाते हो। क्योंकि चैन लेकिन ध्यानी को इन सारी कठिनाइयों को पार करके बढ़ते ही से होने का पाठ तुमने सीखा नहीं। दूसरा तुम्हें जल्दी ही क्षुब्ध जाना है। कठिनाइयों को बहाना मत बनाना। यह मत कहना, कर देता है। हालांकि तुम कहते हो, यह आदमी जिम्मेवार है। हम इस वजह से न कर सके। | इसने गाली दी, इसलिए मैं क्रुद्ध हो गया। असली बात दूसरी मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, क्या करें, समय नहीं है। है। तुम्हारे पास ध्यान नहीं है, इसलिए इसकी गाली काम कर ध्यान कब करें? ये वे ही लोग हैं, जो सिनेमा में भी बैठे हैं। ये वे गयी। तुम्हारे पास ध्यान होता, इसकी गाली कितनी ही आग से ही लोग हैं, जो होटल में भी दिखायी पड़ते हैं। ये वे ही लोग हैं, भरी आती, तुम्हारे पास आकर बुझ जाती। अंगारा नदी में जो सबह रोज अखबार बड़ी तल्लीनता से पढ़ते हैं। ये वे ही फेंककर देखो। जब तक नदी को नहीं छता, तब तक अंगारा है। लोग हैं जो रेडियो भी सुनते हैं, टेलिविजन भी देखते हैं। ये वे ही जैसे ही नदी को छुआ कि राख हुआ। लोग हैं, जो ताश भी खेलते हैं। और जब ताश खेलते मिल जाते तुम्हारे भीतर ध्यान की सरिता हो, तो न गालियां चुभती न हैं, तो कहते हैं, क्या करें, समय काट रहे हैं। और इनसे कहो | क्रोध, न अपमान, न सम्मान, न सफलता न असफलता, न यश ध्यान, तो कहते हैं समय नहीं है। और इन्हें खयाल भी नहीं | न अपयश, कुछ भी नहीं छता। भीतर ध्यान हो, तो महावीर आता कि ये क्या कह रहे हैं! ये कैसा बहाना कर रहे हैं! कहो | कहते हैं, तुम पहाड़ पर रहो कि भरे बाजार में, सब बराबर है। कि ध्यान, तो वह कहते हैं, अभी तो बहुत संसार में उलझनें हैं। रोम-रोम में नंदन पुलकित, संसार की उलझनें कब कम होंगी? कभी कम हुई हैं? बढ़ती ही सांस-सांस में जीवन शत-शत जाती हैं। इनसे कहो ध्यान, तो तत्क्षण कोई तरकीब निकालते स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित हैं। तरकीब केवल इतना ही बताती है कि इन्हें अभी पता ही नहीं | मुझमें नित बनते-मिटते प्रिय! कि ये क्या गंवा रहे हैं। मुश्किल तो यह है, विडंबना यह है कि | स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या! पता हो भी कैसे। यह तो पाकर ही पता चलता है कि क्या गंवा स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या! रहे थे। यह तो ध्यान जिस दिन लगेगा, उस दिन पता चलता है | जिसके भीतर ध्यान की कीमिया पैदा हो गयी, वह अपने स्वर्ग कि अरे, हम किस चीज के लिए समय नहीं पा रहे थे। तब पता | को खुद ही निर्मित करने लगता है। वह मिट्टी छू देता है, सोना हो चलता है कि सब समय इसी पर लगा दिया होता तो अच्छा था। | जाती है। तुम सोना छओ, मिट्टी हो जाता है। तुम प्यारे से प्यारे क्योंकि जो ध्यान में गया समय, वही बचा हुआ सिद्ध होता है। | आदमी को मिल जाओ, जल्दी ही कटुता आ जाती है। तुम जो ध्यान के बिना गया, वह गया। वह रेगिस्तान में खो गयी | प्रीतम से प्रीतम व्यक्ति को खोज लो, जल्दी ही संघर्ष शुरू हो नदी। ध्यान में जो लगा, वही सागर तक पहुंचता है। शेष सब जाता है। ध्यानी मिट्टी को भी छुए, सोना हो जाता है। ध्यानी रेगिस्तान में भटक जाता है। | कुटिया में भी रहे, तो महल हो जाता है। ध्यानी के होने में कुछ "जिन्होंने अपने योग, अर्थात मन-वचन-काया को स्थिर कर | राज है। उसके पास भीतर का जादू है। वह जादू है। लिया और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया, उन | स्वर्ग मुझे क्या, निष्क्रिय लय क्या! मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य | शून्य में भी लय बजती है। नर्क में भी फेंक दो ज्ञानी को, ध्यानी अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता है।' को, तो स्वर्ग बना लेगा। 300 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340146
Book TitleJinsutra Lecture 46 Twara Se Jina Dhyan Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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