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________________ त्वरा से जीना ध्यान है धीरे-धीरे-धीरे कुछ करना नहीं होता, सिर्फ अपने विचारों के जिस दिवस हम भूमितल पर जन्म लेते हैं साक्षी-भाव बने रहने से; साक्षी, द्रष्टा बने रहने से; देखते झेन फकीर कहते हैं कि बताओ अपना मौलिक चेहरा-वह रहो–अलिप्त- ठीक है, विचार आते हैं, जाते हैं; देखते रहो, चेहरा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम्हारा था। वह चेहरा, जब आने भी दो, जाने भी दो न रोको, न धकाओ; रस मत लो; तुम मर जाओगे तब भी तुम्हारा होगा-बताओ वह मौलिक विरस, उदासी, तटस्थ; जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं; ऐसे चेहरा। अभी तो हम जो चेहरे रखे हुए हैं, ये सब ओढ़े हुए चेहरे देखते-देखते तुम पाओगे कि धीरे-धीरे अंतराल भी आने लगे। हैं। कुछ क्षण आ जाते हैं जब कोई विचार नहीं होता। उन्हीं अंतरालों तुम कहां से आ रहे हो, में पहली दफा बदलियां छंटेंगी, सूरज की रोशनी उतरेगी। उन्हीं नाम क्या है? अंतरालों में पहली दफा निर्विकल्पता के थोड़े-थोड़े अनुभव वह पुकारूं, शब्द मत मुझको बताओ होंगे-छोटे-छोटे, क्षणभंगुर–लेकिन वे क्षण बहुमूल्य हैं। जो तुम्हारा आवरण है। जिन्होंने उन क्षणों को जान लिया, समझो कि उन्होंने स्वर्ग की कोई को हम कहते हैं राम, किसी को कृष्ण, किसी को कुछ, यात्रा कर ली। थोड़ी देर को सही, लेकिन किसी और लोक में | किसी को कुछ। यह तो पुकारू नाम है। तम जब आये थे, तो प्रवेश कर गये। फिर क्षण बड़े होने लगते हैं। धीरे-धीरे विचारों कोई नाम लेकर न आये थे। तुम जब आये थे, तब खाली, से छुटकारा होता चला जाता है। विचार दूर होते चले जाते हैं। अनाम आये थे। तुम जब आये थे, तब कोई लेबिल तुम पर और व्यक्ति अपने में लीन होता चला जाता है। इस लीनता को लगा न था। न हिंदू थे, न मुसलमान थे, न जैन थे, न ईसाई थे। कहते हैं, निर्विकल्प। इस स्थिति को कहते हैं, समाधान, तुम जब आये थे, तब न सुंदर थे, न कुरूप थे। तुम जब आये समाधि। और तब चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों को भस्म थे, न बद्ध थे, न बद्धिमान थे। तम जब आये करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है। विशेषण न लगा था। विशेषण-शून्य। तुम कौन थे तब? ‘जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं हैं तथा मन-वचन-काया | ___ ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ | जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रगट होती है।' शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा ध्यान अग्नि है। क्योंकि जलाती है कचरे को। क्योंकि जलाती | दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया है व्यर्थ को, और असार को। ध्यान अग्नि है, क्योंकि जलाती है | उस ढांचे के पार कौन थे तुम? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह अहंकार को। ध्यान मृत्यु जैसी है। क्योंकि मारती है तुम्हें-तुम छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि जैसे अभी हो, और जन्माती है उसे-जैसे तुम होने चाहिए। इसकी फिकिर न करेगी-हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; तुम्हारे भविष्य को प्रगट करती है, तुम्हारे अतीत को विदा करती सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप; स्त्री हो, पुरुष, है। तुम्हें संसार की पकड़ के बाहर ले जाती है और परमात्मा की धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही सीमा में प्रवेश देती है। ध्यान के इस द्वार से खोज करनी है अपने कर देगी। मिट्टी तम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन असली स्वरूप की। बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो तुम कहां से आ रहे हो, नाम क्या है? फिर छिन जाएगा। उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच वह पुकारूं शब्द मत मुझको बताओ जाता है, वही हो तुम। जो तुम्हारा आवरण है। ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और पर कहो वह नाम मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ-किसी भांति जिसको फूल और नक्षत्र ये कहते नहीं इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के नाम जो असहाय, मर जाता उसी दिन अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान 293 Jain Education International 2010 03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340146
Book TitleJinsutra Lecture 46 Twara Se Jina Dhyan Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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