________________ गुरु है मन का मीत / नहीं। मंदिर में जाकर बैठ गये, शांति है। मंदिर की है, तुम्हारी आकाश की तरफ। नहीं। इस शांति से तुम्हारे भीतर का उथल-पुथल, इस शांति से जिसलिए पंख में लाया था, तुम्हारे भीतर का रुदन, इस शांति से तुम्हारे भीतर का कोलाहल वह काम न इनसे ले पाया। समाप्त न होगा। इन पंखों का देनेवाला, समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति? नाराज न होगा क्या मुझ पर? क्यों नहीं अंतर-गुहा का अशंखल दुबर्बाध्य वासी पंखों से बांध लिये पत्थर! अथिर यायावर, अचिर में चिर प्रवासी गिराओ पत्थर। लेकिन दूसरों की कही हुई बातों से यह न नहीं रुकता, चाह कर स्वीकार कर—विश्रांति? | होगा। सना बहत कहते लोग, जगत माया है। छटती तो नहीं! मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा सुना बहुत, लोग कहते हैं क्रोध आग है; मिटता तो नहीं! सुना जगत की उपलब्धियां सब हैं लुभानी भ्रांति। बहुत, काम पाप है; जाता तो नहीं! क्या इतने से साफ नहीं हो जानते तो तुम भी हो। लेकिन जानना तुम्हारा मानने का है। रहा कि सुना हुआ जो है, पढ़ा हुआ जो है; शास्त्र से, संस्कार से मानकर भी सभी ईप्सा, सभी कांक्षा जो मिला है, वह ज्ञान नहीं! प्रकाश की बातें हैं, प्रकाश नहीं। जगत की उपलब्धियां सब हैं लुभानी भ्रांति पाकशास्त्र है, भोजन नहीं। जल का सूत्र होगा-एच टू कछ हल नहीं होता। मानकर कहीं हल हआ है? सनकर मान ओ-लेकिन एचट ओ से कहीं प्यास किसी की बझी है। लिया, कहीं हल हुआ? जानना होगा। ज्ञान! फिर बनेगा कागज पर किसी को एच टू ओ लिखकर दे दो, वह प्यासा ध्यान। फिर ध्यान से होगी निर्जरा। फिर निर्जरा से मोक्ष। तड़फ रहा है—वह फेंक देगा कागज, वह कहेगा इसे क्या इतना ही फर्क है परमात्मा में और आदमी में कि आदमी व्यर्थ | करेंगे? शास्त्र का क्या करेंगे? होगा ठीक तुम्हारा सूत्र, मुझे के बोझ से ढंका है, जैसे हीरा कंकड़ों में दबा, कि सोना मिट्टी में जल चाहिए, सूत्र नहीं। लेकिन जल शास्त्र से मिल भी नहीं पड़ा। आग से गुजर जाए, निखर जाए, कि आदमी परमात्मा है। | सकता। स्वयं से ही मिल सकता है। और जब तक वैसा सरापा आरजू होने ने बंदा कर दिया हमको जलस्रोत तुम अपने भीतर न खोज लो, प्यासे तड़फते, जीवन के वगरना हम खुदा थे गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते. नाम पर क्षण-क्षण मरते ही तुम रहोगे। अगर हृदय में आकांक्षा, वासना का बीज न होता, चाह न मन में मिलन की आस है, होती, तो हम स्वयं ईश्वर थे। फिर से चाह जल जाए, हम फिर दुग में दरस की प्यास है, ईश्वर हो जाएं। चाह हमें उतार लायी जमीन पर। लंगर की तरह पर ढूंढता फिरता जिसे, चाह ने हमें जमीन से बांधा है। ज्ञान की अग्नि में चाह जल जाती उसका पता मिलता नहीं। है। ठीक कहते हैं महावीर-'जैसे प्रचंड अग्नि में तृण-राशि झूठे बनी धरती बड़ी, जल जाती है, ऐसा ही बीज चाह का, तृष्णा का जल जाता है।' झूठे बृहत आकाश हैं; जल्दी करो, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं। जलाओ इस मिलती नहीं जग में कहीं, आग को। यह सोना कब से तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। प्रतिमा हृदय के गान की। जिसलिए मैं पंख लाया था, किसके सामने नाचं? किसके सामने गीत गाऊं? कहां वह काम न इनसे ले पाया। चढ़ाऊं जीवन का अर्घ्य ? कहां चढ़ाऊं जीवन का नैवेद्य ? कहां इन पंखों का देनेवाला, है वह द्वार, जो मेरे घर का है? जो वस्तुतः मेरे घर का द्वार है। नाराज न होगा क्या मुझ पर? मन में मिलन की आस है, पंखों से बांध लिये पत्थर! दृग में दरस की प्यास है, फैलाओ पंखों को। फिर से तौलो हवाओं पर। फिर उड़ो पर ढूंढता फिरता जिसे, 257 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibra y.org