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________________ जिन सत्र भाग: 2 नहीं, मार्ग ने तुम्हें पकड़ लिया। फिर तुमने मार्ग का उपयोग न चादर पर सिकुड़न पड़ी, चांद टूट जाता है, बिखर जाता है। किया, मार्ग तुम्हारा मालिक हो गया। तो फिर तुम मार्ग पर ही | हजार-हजार टुकड़े हो जाते हैं। चांदी फैल जाती झील पर, पर अटके रह जाओगे। और हो सकता है मार्ग ने तुम्हें ठीक मंजिल | चांद कहां खोजोगे। के द्वार तक पहुंचा दिया हो, तब भी क्या फर्क पड़ता है। मंदिर से विचार तरंगें हैं। उन्ही तरंगों में तो परमात्मा खो गया है। उन्हीं हजार मील दूर रहे कि मंदिर की सीढ़ियों के पास खड़े रहे, मंदिर तरंगों के कारण तो परमात्मा प्रतिबिंबित नहीं हो पाता। उसकी के भीतर तुम नहीं हो। मंदिर में तुम्हार प्रवेश नहीं हुआ। तो छाया नहीं बन पाती तुममें। विचार से संसार चलता है, निर्विचार हजार मील की दूरी, कि हजार फीट की दूरी, कि हजार इंच की | से धर्म। विचार साधन है संसार में। वहां अगर विचार न किया, दूरी, क्या फर्क पड़ता है। मंदिर के तुम बाहर ही हो। और मंदिर लूटे-खसोटे जाओगे। वहां अगर विचार न किया, बड़े धोखे में के भीतर आओ, तो ही कुछ होगा। मंदिर तक आने से कुछ भी पड़ोगे। वहां बिना विचार किये बड़ी मुश्किल आयेगी। नहीं होता। मंदिर के भीतर आओ, क्योंकि मंदिर के भीतर आते | इसीलिए तो संसार में ले जाने के लिए विद्यालय हैं, ही तुम खो जाओगे। मंदिर के द्वार तक तो तुम बने ही रहोगे; विश्वविद्यालय हैं—वे विचार करना सिखाते हैं। वे सिखाते हैं, मंदिर के द्वार तक तो अहंकार बना ही रहेगा। मंदिर के द्वार के कैसे ठीक-ठीक विचार करो। तर्क-सरणी से, गणितपर्वक कैसे भीतर ही पहुंचकर तुम निराकार होते हो। सावधान रहो। कैसे संदेह करो कि दूसरा धोखा न दे पाये। बाहर मेरे पास तक आ गये, मेरे भीतर आओ। क्योंकि जब तुम मेरे | धोखे देनेवाले लोग खड़े हैं। सारा संसार संघर्ष में लीन है। वहां भीतर आओगे, तभी मैं तुम्हारे भीतर आ सकूँगा। और कोई | भोलेपन से नहीं चलता। वहां तिरछे होना पड़ता है। कहावत उपाय नहीं। जब तुम मुझमें खोओगे, तो मैं तुममें खो सकूँगा। है-सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता। अंगुली टेढ़ी करनी और कोई मार्ग नहीं। पड़ती है। वहां आदमी को संदेह में धीरे-धीरे अपने को निष्णात 'आपने कहा कि चित्त की दशा ही बाधा है। और मुझे मेरे | करना पड़ता है। भरोसा तो तभी करना बाहर, जब संदेह का कोई चित्त की दशा ही खींचकर आपके पास ले आयी है।' कारण ही न रह जाए। सब संदेह कर चुको, कोई कारण न रह सौ प्रतिशत सही कहते हो। पर अब वहां रुको मत। इतना | जाए, तब। किया. थोडा और करो। आये थे इसीलिए कि मैं जो कहंगा उसे वस्ततः बाहर भरोसा कोई करता ही नहीं। भरोसे के भीतर भी समझोगे और करोगे। अब व्यर्थ लड़ो मत। अब मैं तुमसे कह संदेह खड़ा रहता है। मित्र में भी हम देखते ही रहते हैं संभावना रहा हूं कि अब इस चित्त को छोड़ो, इसका काम हो गया। यह | शत्रु की। अपने में भी पराया खड़ा रहता है। चाहे थोड़ी देर को जहां तक पहुंचा सकता था, पहुंचा दिया। इसका उपयोग हो | हमने इस संदेह को स्थगित कर दिया हो, नष्ट कभी नहीं होता। चुका। अब यह चली कारतूस व्यर्थ मत ढोओ। अन्यथा यही अपने से भी डर बना रहता है, क्योंकि कौन अपना है वहां? बाधा बनेगी। चित्त ही लाता है। फिर चित्त ही अटका लेता है। सभी संषर्घ में लीन हैं। सभी प्रतिस्पर्धा में पड़े हैं। सभी 'आपने यह भी कहा कि बुद्धि ही बाधा है।' | एक-दूसरे के साथ दांव-पेंच कर रहे हैं। वहां जरा चूके कि निश्चित ही। बुद्धि बाधा है। क्योंकि बुद्धि तुम्हें ध्यान में नहीं | गिरे। वहां जरा चूके कि कोई तुम्हारी छाती पर चढ़ा। वहां जरा जाने देती। बुद्धि विचार में ले जाती है। | चूके कि किसी ने तुम्हें साधन बनाया और शोषण किया। विचार और ध्यान बड़ी विपरीत दिशाएं हैं। विचार का अर्थ है, | स्वभावतः बाहर की दुनिया में संदेह, विचार, इसका बहुत तरंग। ध्यान का अर्थ है, निस्तरंग हो जाना। विचार का अर्थ है, ज्यादा उपयोग है। भीतर की दुनिया में तुम हो, तुम्हारा परमात्मा सोचना। ध्यान का अर्थ है, मात्र शुद्ध होने में डूब जाना। जैसे | है। अंततः तो बस परमात्मा है, तुम भी नहीं हो। वहां धोखा झील सो गयी। कोई लहर नहीं, कोई कंपन नहीं। हवा का झोंका | कौन देगा, धोखा कौन खायेगा? वह एक की दुनिया है। वहां भी नहीं आता। दर्पण हो गयी। उसी दर्पण बनी झील में चांद दूसरा है ही नहीं। वहां दूसरे को छोड़कर ही पहुंचना होता है। झलक आता है। हवा चली, लहरें उठीं, झील कंपी, झील की वहां बुद्धि का क्या करोगे? बुद्धि का शास्त्र वहां काम का नहीं। 224 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340143
Book TitleJinsutra Lecture 43 Gyan hi Kranti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size36 MB
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