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________________ जिन सूत्र भाग : 2 कल खेला था अलियों-कलियों की गलियों में साथ है सदा से, वही साथ होगी सदा। आत्मा की परिभाषा ही अब आज मुझे मरघट में रास रचाने दो यही है, जो सदा से साथ है, जो स्वभाव है। कल मस्काया था बैठ किसी की पलकों पर इसलिए क्षण से बहुत व्यथित मत हो जाओ, शाश्वत पर ध्यान अब आज चिता पर बैठ मुझे मुस्काने दो। रखो। शाश्वत पर जिसका ध्यान है, उसकी सामायिक सध ही जिस जीवन में मौत छिपी है, जहां डेरा लग भी नहीं पाता कि जाएगी। अपने से सध जाएगी। क्योंकि उसके जीवन में जिन उखाड़ने का समय आ जाता है। ठोंक भी नहीं पाते खूटे-एक बातों से तनाव पैदा होता था, वे बातें अर्थहीन हो जाएंगी। तम्हें तरफ ठोंकना पूरा हो पाता है, दूसरी तरफ से उखड़ना शुरू हो कोई बता दे कि आज सांझ तुम्हें मरना है, मौत आ गयी; फिर जाता है। यह बाजार भर भी नहीं पाता कि संध्या हो जाती है। कोई गाली दे जाए, तो शायद तुम गाली का उत्तर भी न देना यहां मिलन हो कहां पाता, और विरह की यात्रा शुरू हो जाती है। चाहोगे। तुम कहोगे, अब क्या गाली का उत्तर देना, हम ही बेकार बहाना, टालमटोल व्यर्थ सारी चले! शायद तुम कहोगे, क्षमा ही मांग लें। कहोगे कि आ गया समय जाने का-जाना ही होगा भूल-चूक क्षमा करना। कुछ गलती हो गयी होगी, इसलिए तुम चाहे कितना चीखो-चिल्लाओ, रोओ, गाली दे रहे हो; अब मेरे जाने का वक्त आ गया, आज सांझ तो पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा। मुझे जाना है, अब क्या झगड़ा रोपना! अब क्या अदालतें खड़ी एक पल भी यहां ठहराव कहां है! बनाओ, मिटाओ; करनी। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि मौत सांझ आ रही है, तुम ऐसे जमाओ, उखाडो खोलो, बंद करो। इस छोटी-सी क्षणभंगर | जीते हो जैसे सदा यहां रहना है। तो इंच-इंच जमीन के लिए लड व्यवस्था में हम मित्र भी बना लेते, शत्रु भी बना लेते। राग बना | जाते हो। रत्ती-रत्ती, कौड़ी-कौड़ी धन के लिए लड़ जाते हो। लेते, विराग बना लेते। धन सम्हालकर रख लेते, कूड़ा-कर्कट छोटे-मोटे पद के लिए लड़ जाते हो। हजार तरह के उपद्रव बाहर फेंक आते। और फिर एक दिन हम पड़े रह जाते, और जो अपने हाथ से खड़े कर लेते हो। इस बात को बिना सोचे-समझे सम्हाला था वह पड़ा रह जाता। महावीर कहते हैं, इसका बोध कि मेले में खड़े हो। इस बात को बिना सोचे-समझे कि यह कोई रहे, इसकी समझ रहे, तो तुम जकड़ोगे न, पकड़े न जाओगे, घर नहीं, धर्मशाला है। रात रुके, सुबह जाना है। महावीर कहते कारागृह न बनाओगे—तुम मुक्त रह सकोगे। होश मुक्ति है। हैं, यह बोध पक्का हो जाए, तो सामायिक। चीजें जैसी हैं उनको वैसे ही देख लेना मुक्ति है। कृष्ण ने कहा है: समत्व योग है-समत्वं योग उच्यते। सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है, लेकिन दोनों में से कोई भी समत्व एक योग है। महावीर कहते हैं, समता सामायिक है। तुम्हारा नहीं। मित्र, शत्रु, कौन तुम्हारा है? मित्र से मित्रता गिर वही बात कहते हैं : सामायिक का अर्थ होता है, ध्यान; आत्मा जाने दो, शत्रु से शत्रुता गिर जाने दो। तुम तो इस सत्य को में डूब जाना, तन्मय हो जाना। पहचानो कि तुम ही अगर अपने हो जाओ, तो बहुत काफी है। खयाल करेंतुम ही अगर अपने मित्र हो जाओ, तो काफी है। तुम ही अपने जब तक तुम बाहर उलझे हो, स्वयं में डूब न सकोगे। बाहर शत्रु न रहो, तो काफी है। बनाया मित्र, तो उलझे बाहर। बाहर बनाया शत्र, तो उलझे महावीर ने कहा, आत्मा ही अपना मित्र, आत्मा ही अपना शत्रु बाहर। बाहर सोचा पद पाना है, तो उलझे। बाहर सोचा कि धन है। अगर विकासमान हो तो मित्र, अगर ह्रासमान हो जाए तो | पाना है, तो उलझे। भीतर जानेवाले को बाहर की सभी बातें शत्रु। अगर आकाश की तरफ ले चले, पंख बन जाए तो मित्र, उलझा लेती हैं। और भीतर ही तुम हो। वहीं है पाने योग्य। वहीं अगर पाताल की तरफ गिराने लगे, अंधेरी गलियों में भटकाने है जाने योग्य। वहीं है परम सत्ता का निवास। वहीं है परमात्मा लगे, नरकों में डुबाने लगे, तो शत्रु। बाहर मत खोजो शत्रु और का आवास। तो भीतर जाने के लिए बाहर जितने कम से कम मित्र। वहां भीतर ही आत्मा से मैत्री बना लो, बस वही मैत्री काम उलझाव हों, उतने अच्छे। जो आदमी आनेवाली है। क्योंकि बस आत्मा ही साथ जानेवाली है। वही | मझधार की तरफ बहेगा कैसे? जो आदमी किनारे को न छोडे, 208| Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340142
Book TitleJinsutra Lecture 42 Samta hi Samayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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