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________________ समता ही सामायिक हो? या मन कहीं और भी जा रहा है? मैं जो कह रहा हूं अगर कूड़ा-कर्कट और सोने में समभाव।। तुम उस पर सोचने भी लगे, तो चूके। क्योंकि सोचने का अर्थ 'शत्रु और मित्र में', कौन अपना है, कौन पराया है? आये है, तुम या तो अतीत में गये—पहले तुमने कुछ सुना होगा, पढ़ा अकेले, गये अकेले। आये खाली हाथ, गये खाली हाथ। न होगा, सोचा होगा, सार-संपदा है तुम्हारे विचारों की, उसका तुम कोई संगी-साथी लाये, न कोई संगी-साथी ले जाएंगे। दो दिन मेल-ताल बिठाने लगे...जो में कहता हूँ, ठीक कहता हूँ? जो का मेला है। नदी-नाव संयोग है। किसी को बना लिया मित्र, मैं कहता हूं तुमसे मेल खाता है? तुम्हारी स्वीकृति है या नहीं? किसी को बना लिया शत्रु। किसी को कहा अपना, किसी को या तुम आगे निकल गये। मैं कह रहा हूं जागकर चलो, तुम कहा पराया। सब अजनबी थे। और सब अजनबी हैं। अपना सोचने लगे-अच्छा, कल सुबह से जागकर चलेंगे। तो भी | ही पता नहीं, दूसरे का पता कैसे हो! खुद से तो पहचान नहीं हो चूक गये। तो भी भूल हो गयी। तुमने तय कर लिया मन में कि पायी अब तक, औरों की पहचान की तो बात ही छोड़ दो। कुछ ठीक है, अब यह बात समझ में आ गयी, अब जागकर ही काम अजनबियों को कहते हैं अपने और कुछ अजनबियों को कहते हैं करेंगे, तो भी चूक हो गयी, तो भी तुमने जागकर ही नहीं सुना तो पराये, कुछ अजनबियों को कहते हैं इन्हें हम पहचानते हैं, कुछ जागकर तुम चलोगे क्या! अजनबियों को कहते हैं इन्हें हम पहचानते नहीं। लेकिन सभी तो जैसे-जैसे तम पाओ कि मन छिटक-छिटककर भागता है, अजनबी हैं। किसे पहचानते हो तुम! पारे की तरह है—पकड़ो कि छिटक-छिटक जाता है, इधर से फिर हम कैसे निर्णय करते हैं कौन मित्र, कौन शत्रु? जिसका पकड़ो तो दूसरी राह खोज लेता है। मगर अगर तुम समझपूर्वक | हमारी वासनाओं में मेल खा जाए, वह मित्र। और जो हमारी मन का पीछा करते रहो, तो एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि मन वासनाओं में बाधा बन जाए, वही शत्रु। जो हमें धन की यात्रा में ठहर जाता है, रुक जाता है क्षण में। स्थिर। गीता उस स्थिति को साथ दे, वह मित्र। जो धन में अवरोध खड़े करे, हमारी परम स्थिति मानती है। ऐसे रुकते-रुकते एक घड़ी आती है। महत्वाकांक्षा में रोड़े अटकाये, वह शत्रु। जो हमें सहारा दे वह जबकि जरा भी कंपन नहीं होता, तो स्थितिप्रज्ञ, तो रुक गयी मित्र, जो सहारा न दे वह शत्र। लेकिन सहारा वासनाओं के प्रज्ञा। महावीर उसको ही उपयोग कहते हैं। | लिए ही हम मांग रहे हैं। पहले तो वासनाएं ही व्यर्थ हैं। पहले 'तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही | तो वासनाओं की दौड़ ही व्यर्थ है। सामायिक है।' तो महावीर कहते हैं, 'तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में जब तुम्हें उपयोग की कला आ जाए, तो बाहर की छोटी-छोटी समभाव रखना ही सामायिक है।' यह ध्यान की बड़ी गहरी चीजों की बजाय फिर उस उपयोग की कला का भीतर प्रयोग परिभाषा हुई। ध्यान की आत्यंतिक परिभाषा हुई। कहते हैं, शुरू करना। समता सामायिक है। सम्यकत्व, संतुलन, संयम; दो अतियों के 'तिनके और सोने में'-तब सोना और मिट्टी, दोनों के बीच | बीच डोलना न, बीच में खड़े हो जाना; न बायें, न दायें; मध्य में डावांडोल मत होना। तब यह मत कहना कि सोना मूल्यवान, | थिर हो जाना सामायिक है। प्रेम और घृणा कोई भी पकड़े न, मिट्टी ना कुछ। तब कंपना मत सोने और मिट्टी में। तब वहां भी | जन्म और मृत्यु कोई भी जकड़े न। न तो हम कहें किसी को कि कंपन छोड़ना। तब इतना ही कहना, यह सोना, यह मिट्टी। और | आओ, न हम कहें किसी को कि जाओ; न तो किसी के लिए आत्यंतिक अर्थों में तो मिट्टी हो कि सोना, सब बराबर है। | स्वागत हो और न किसी के लिए अपमान हो, ऐसी अवस्था को क्योंकि हम तो विदा हो जाएंगे और सब यहीं पड़ा रह जाएगा। | महावीर कहते हैं, सामायिक। जो पडा ही रह जाएगा, हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब बेकार बहाना, टालमटोल व्यर्थ सारी भी होगा, उसके साथ क्या राग-रस बनाना! जो छटेगा, उसके आ गया समय जाने का-जाना ही होगा साथ संबंध बनाना दुख के बीज बोना है। क्योंकि जब छूटेगा, / तुम चाहे कितना चीखो-चिल्लाओ, रोओ, तो पीडा होगी। तिनके और सोने में, मिट्टी और सोने में, | पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340142
Book TitleJinsutra Lecture 42 Samta hi Samayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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