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________________ हला सूत्र था ऐसा जैसे कि नदी चलती रहती है, ऐसा संन्यासी चलता रहे। इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा। कहीं ठहरे न, कहीं मन को न लगाये, कहीं डबरा न बनाये, तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए।। बहाव तोड़े न, बहाव बना रहे। साधारणतः मनुष्य इंद्रियों के विषय-भोग के चिंतन में लीन यह बात बड़ी गहरी थी, इसे बड़े ऊपरी अर्थों में पकड़ लिया रहता है। पांच इंद्रियां हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, पांच ही गया। जैन-मुनि अब भी चलता है, एक गांव से दूसरे गांव मनुष्य के चिंतन के विषय हैं। बदल लेता है। लेकिन भीतर का बहाव कहां है! भीतर तो सब 'इंद्रियों के विषय तथा पांच प्रकार के चिंतन-कार्य को छोड़कर | जड़ है, सब ठहरा हुआ है। भीतर गति कहां है? और महावीर केवल गमन-क्रियाओं में तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्व देकर | ने कहा है, गति धर्म है; अगति अधर्म है। उपयोगपूर्वक, जागृतिपूर्वक चलना चाहिए।' - महावीर से ज्यादा क्रांतिकारी विचारक धर्म के जगत में दसरा जो हम कर रहे हैं, वह हम शायद ही मनःपूर्वक करते हैं। जो नहीं हुआ। किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं कहा है, कि अगति अधर्म हम करते हैं, यंत्रवत करते हैं। मन और हजार काम करता है। है और गति धर्म। चलते ही रहना है। कहीं ठहरना नहीं। कहीं जैसे राह पर चल रहे हैं—शरीर तो राह पर होता है, मन न रुकना नहीं। रुकने का अर्थ है, राग बना। रुकने का अर्थ है, न कहीं और। हो सकता है घर पर हो, दुकान पर हो, मंदिर आसक्ति बनी। रुकने का अर्थ है, वस्तु महत्वपूर्ण हो गयी, में हो, लेकिन एक बात सुनिश्चित है कि वहां नहीं होगा जहां तुम बहुत महत्वपूर्ण हो गयी, उसने तुम्हारे लिए कारागृह बना हो। जिस दिन मन वहां हो जाए जहां तुम हो, उसी दिन लिया। अब तुम मुक्त न रहे, बंध गये। इसका यह अर्थ न था आत्मबोध का प्रारंभ होता है। मन का और शरीर का एक-साथ, कि कहीं साधु ठहरे न। इसका अर्थ था, साधु का चित्त कहीं ठहरे एक-ही स्थान, एक-ही काल में हो जाना ध्यान है। मन और न। तो जैन-मनि अब भी चलता है, लेकिन चित्त तो कभी का शरीर अलग-अलग चलते रहते हैं। और जब तक उन दोनों का बंध गया है, हजार तरह के बंधनों में। मिलन न हो, तब तक तुम्हें उसका पता न चल सकेगा जो दोनों| इसलिए महावीर अपने मुनियों को कहते हैं चलते समय, के पार है। उपयोगपर्वक चलना। चलना अकेला काफी नहीं है। गति महावीर चलने पर जोर देते हैं। क्योंकि महावीर का जो अकेली काफी नहीं है। क्योंकि अगर गति अकेली हो और संन्यासी है, वह परिव्राजक था। वह चलता रहता है एक गांव से | विवेक न हो पीछे, तो गति विक्षिप्त करेगी। देखें, पूरब में डबरे दसरे गांव। महावीर ने कहा है कि संन्यासी रुके न। यह प्रतीक बन गये हैं चेतना के। परंपरा, रूढ़ि, अतीत बहुत बोझिल होकर | था। यह प्रतीक लोगों ने बड़ी जड़ता से पकड़ लिया। यह प्रतीक बैठ गया है पत्थर की तरह छाती पर। तो पूरब में डबरे बन गये 203 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340142
Book TitleJinsutra Lecture 42 Samta hi Samayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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