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________________ समता ही सामायिक गये इंद्रधनुषों का दुख है। जवान नशे में है। बूढ़े का नशा तो टूट जाता है, लेकिन होश नहीं आता। नशा टूटते ही घबड़ाता है बूढ़ा, परेशान होता है। लेकिन यह याद नहीं आती कि जिसके पीछे हम दौड़ते थे, कहीं ऐसा तो नहीं घर में ही छिपा हो। आंखें बाहर खुलती हैं, तो हम बाहर देखते हैं। कान बाहर खुलते हैं, तो हम बाहर सुनते हैं। हाथ बाहर फैल सकते हैं, तो हम बाहर खोजते हैं। भीतर न तो आंख खुलती है, न हाथ खुलते हैं, न कान खुलते हैं—कोई इंद्रिय भीतर नहीं जाती। इसलिए भीतर की हमें याद नहीं आती। भीतर जाने की कला का नाम ध्यान है। बाहर जाने की कलाओं का नाम इंद्रियां हैं। इंद्रियां हैं बाहर जानेवाले द्वार, ध्यान है भीतर जानेवाला द्वार। इंद्रियों में ही भटके रहे, खो गये, तो | तुम्हें जीवन का सत्व न मिल सकेगा। तो तुम रोते आये, रोते जाओगे। तो तुम खाली आये, खाली जाओगे। ध्यान को जगाओ! क्योंकि ध्यान ही भीतर जा सकता है। आंख भीतर नहीं जा सकती, कान भीतर नहीं जा सकते, हाथ भीतर नहीं जा सकते। सिर्फ ध्यान भीतर जा सकता है। जिसने ध्यान को जगा लिया, उसने जीवन का सारभत पा लिया। जिसने ध्यान को जगा लिया, उसके भीतर सतत एक धारा बहती रहती है। सब कामों-धामों, व्यस्तताओं के बीच भी एक स्मरण नहीं मिटता, एक दीया नहीं बझता. वह दीया जगमगाता रहता है—मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं। ऐसा कुछ शब्द नहीं | दोहराने होते-खयाल रखना—ऐसा बोध, ऐसा भाव H मैं | साक्षी हूं। यही समता है, यही समाधि है, यही सामायिक है। आज इतना ही। 217 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340142
Book TitleJinsutra Lecture 42 Samta hi Samayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size38 MB
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