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________________ हला प्रश्न: भगवान ने तुम्हें स्वीकार किया ही हुआ है। उसके स्वीकार के नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी, चंचल है मति मोरी! में अपने को डाल दो। तुम उससे ही कह दो कि हमारे किए कुछ न होगा। कर-करके ही तो हम भटके। किया तो बहुत, कुछ भी भक्ति के मार्ग पर मन की चंचलता बाधा नहीं है। भक्ति के न हुआ। अब तेरी मर्जी! मार्ग पर मन की चंचलता साधन बन जाती है। वही भक्ति और तो भक्ति और ज्ञान के फासले को समझ लेना। यह प्रश्न ज्ञान का भेद है। | साधक का तो सम्यक है, लेकिन शब्दावली भक्त की है। ज्ञान के मार्ग पर चंचलता बड़ी बाधा है। क्योंकि ध्यान 'नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी उपजाना होगा। और ध्यान तो तभी उपजेगा जब मन की सारी चंचल है मति मोरी!' कल्पनाएं, सारे विचार, सारी तरंगें सो जायें। ध्यान तो मन की यह शब्दावली तो भक्त की है। और यह प्रश्न साधक का है, अचंचल दशा का नाम है। तो ज्ञान के मार्ग पर चंचल मन शत्रु भक्त का नहीं। इसे तुम स्पष्ट अलग-अलग कर लोगे तो मार्ग पर चंचल मन से कोई विरोध नहीं है। जो लहरें मन की भक्ति का कोई सवाल नहीं है। 'नरहरि' का कोई सवाल नहीं संसार के लिए उठती हैं उन्हीं लहरों को परमात्मा के लिए उठाना है। तब तो तुम हो और तुम्हें अपने प्राणों को अपनी ही ऊर्जा से है। लहरें बनी रहें-बस परमात्मा के लिए उठने लगें! तरंगें शुद्ध करना है। तब तुम अकेले हो; कोई संग-साथ नहीं है। उठती रहें, विचार हों, भावनाएं हों, कोई अड़चन नहीं। लेकिन, अगर तुम भक्ति के मार्ग पर हो तो 'नरहरि' तुम्हें घेरे है लेकिन उन सभी भावनाओं और तरंगों और विचारों में खड़ा है; तुम्हारी श्वास-श्वास में छिपा है। तुम जब चंचल होते परमात्मा का रूप समा जाये। चंचल मन भी उसके चरणों में हो तब वही तुम्हारे भीतर चंचल हो रहा है। ये लहरें भी उसी की समर्पित हो जाये हैं, यह सागर भी उसी का है। इसलिए भक्ति बड़ी सहज है, और ज्ञान असहज है। भक्ति यह सागर और लहर में फासला क्यों करते हो? लहर हो तुम्हारे स्वभाव का उपयोग करती है। ज्ञान, तुम जैसे हो, उसे सकती है सागर के बिना ? सागर हो सकता है लहर के बिना? इनकार करता है; और तुम जैसे होने चाहिए, उसके आदर्श को / सागर होगा लहर के बिना तो मुर्दा होगा। उसमें प्राण ही न होंगे। निरूपित करता है। भक्ति कहती है, तुम जैसे हो, ऐसे ही उसमें जीवन का कोई लक्षण न होगा। और लहरें हो सकती हैं भगवान को स्वीकार हो। तुम भर भगवान को स्वीकार कर लो, | | सागर के बिना? असंभव। न तो लहरें हो सकती हैं सागर के 16451 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340130
Book TitleJinsutra Lecture 30 Prem hai Atyantik Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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