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________________ A जीवन का ऋतः भाव, प्रेम, भवित M ERIES यानी, यह पहले ही नज़रे-इम्तिहां हो जायेगा। भी भारी होने लगती है। तो कंधे पर अगर तुम बोझ डाले हुए हो, -समझे थे कि दिल बहुत प्रेम-प्रवीण है, पता न था कि छोड़ना पड़ेगा, छोड़ते जाना पड़ेगा। पहली नजर में ही मर मिटेगा! अंतिम शिखर सत्य काः बस तुम बचते हो तुम्हारी शुद्धता प्रेम का तीर तो लगा है, अब तुम बुद्धि की सुन-सुनकर कहीं | में। कोई 'मैं' का भाव नहीं होता। महावीर उसे आत्मा कहते इस घाव को छिपा मत लेना! यह घाव सौभाग्य है। हां, जिनका | हैं। नारद उसे परमात्मा कहते हैं। मार्ग संकल्प का है, उन्हें यह घाव लगता ही नहीं। उनके आसपास से तीर निकल जाते हैं, उनको चुभते नहीं। इसलिए तीसरा प्रश्नः कृपा कर कीर्तन-ध्यान के बारे में कुछ उनके सामने सवाल नहीं उठता। सवाल ही उसके सामने उठता समझाएं। है, जिसको प्रेम की आवाज सुनायी पड़ती है। अगर प्रेम की आवाज सुनायी पड़ी है तो चलो, हिम्मत करो! अहंकार में कीर्तन समझने की बात नहीं करने की बात है। कीर्तन शब्द बचाने जैसा कुछ भी नहीं है। में ही छिपा है राज-करने की बात! करो तो जानोगे। समझ से और इतना मैं कहता हूं कि संकल्प के मार्ग पर भी आखिर में कीर्तन का कोई लेना-देना नहीं। वस्तुतः तो समझ को रख दोगे तो अहंकार छोड़ना ही पड़ेगा। प्रेम के मार्ग पर प्रथम ही छोड़ना एक किनारे तभी कीर्तन कर सकोगे। तो समझ-समझकर अगर पड़ता है, संकल्प के मार्ग पर अंत में छोड़ना पड़ता है। प्रेम के कीर्तन किया तो होगा ही नहीं। समझकर किया तो चूक ही मार्ग और संकल्प के मार्ग में इतना ही भेद है। प्रेम के मार्ग पर जो जाओगे। अगर बुद्धिमानी के द्वारा किया, वहीं गलती हो पहला कदम है, वह संकल्प के मार्ग पर अंतिम कदम है। पहले जायेगी। समझने की फिक्र छोड़ो। अगर सच में ही समझना तो संकल्प के मार्ग का साधक अपने को निखारता है, तेज से | चाहते हो तो करो, समझ पीछे से आयेगी। डूबो! भरता है, उज्जवल करता है, चरित्र को निर्मित करता है, शील कीर्तन-ध्यान तल्लीनता का नाम है। कीर्तन-ध्यान अहोभाव को बांधता है, मर्यादा बनाता है; सब तरह से अनुशासित होकर की अभिव्यक्ति है। धन्यभाव की! यह अहोभाव कि मैं है। यह शील और चरित्र का स्तंभ बनता है। लेकिन इस सबके भीतर | अहोभाव कि परमात्मा ने मुझे सृजा ! यह अहोभाव कि थोड़ी देर एक सूक्ष्म अहंकार बनता जाता है : 'मैं हूं तपस्वी! मैं हूं आंखें खुलीं, रोशनी देखी, फूल देखे, पक्षियों के गीत सुने, संयमी! मैं हूं योगी!' यह 'मैं' भरता जाता है। फिर आखिरी सूरज, चांद-तारों का नुत्य देखा! घड़ी आती है, तब उसे पता चलता है कि अब सब तो छूट गया, ये थोड़े क्षण, ये थोड़े लम्हे, जो जीने के मिले, ये न मिलते तो यह 'मैं' बचा। वह सब तो गिर गया जो गलत था, लेकिन उस किससे शिकायत करते? ये मिले-अकारण मिले। मांगे न सब गलत को गिराने में एक चीज भीतर निर्मित होती चली थे, बिना मांगे मिले! किसी ने दिये! यह किसी का प्रसाद—इस गयी-अब इसको गिराना है। प्रसाद के प्रति जो धन्यवाद है, वही कीर्तन है। तो संकल्प के मार्ग पर अंततः, अंतिम, अहंकार को छोड़ना तुमने चाहा तो न था कि तुम हो जाओ। तुम चाहते भी कैसे, पड़ता है। भक्ति के मार्ग पर अहंकार पहले ही कदम में छोड़ना जब तुम थे ही न? चाहने के लिए हो जाना तो पहले जरूरी है। पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूं जिसे छोड़ना ही है उसे इतनी देर तुमने चाहा तो न था कि तुम देख सको। क्योंकि देखा ही न भी क्या ढोना। जिसे छोड़ना ही पड़ेगा, आखिरी शिखर पर होता, तो देखने की चाह कैसे पैदा होती; तुमने चाहा तो न था कि पहुंचने के पहले...। सुन सको यह गीत, यह संगीत जो जीवन का है, यह कभी तुम हिमालय गये, कभी शिखर चढ़े?...तो जैसे-जैसे कलरव-नाद जो अस्तित्व का है-यह सब मिला है, यह शिखर की ऊंचाई बढ़ने लगती है वैसे-वैसे सामान छोड़ना पड़ता | वरदान है! यह तुम्हारे बिना मांगे मिला है। यह भीख नहीं है, है। आखिरी शिखर पर तो कोई नग्न होकर ही पहुंचता है, सब यह प्रसाद है! छोड़कर ही पहुंचता है। वस्त्र भी भारी हो जाते हैं। अपनी श्वास भीख और प्रसाद के फर्क को समझ लेना। तुमने मांगा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrar org
SR No.340128
Book TitleJinsutra Lecture 28 Jivan ka Rut Bhav Prem Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size43 MB
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