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________________ -- जिनसत्र भाग मिले तो भीख। तुमने न मांगा, न तुमने चाहा और और क्या चाहिए? मिला-तो प्रसाद! यह प्रभु-प्रसाद है। यह परम अस्तित्व का कीर्तन तो उन्माद है! बुद्धिमान तो हंसेंगे। इसलिए दुनिया से प्रसाद है तुम्हारे लिए। लहर-लहर को उसने ऐसा बनाया कि वह कीर्तन खोता चला गया है। दुनिया बहुत बुद्धिमान होती चली सारे अस्तित्व को भोग सके! एक-एक कण को जीवंत किया, गयी है। उसी बुद्धिमानी में बुद्धू हो गयी है। कीर्तन खोता चला ताकि एक-एक कण को पूरे होने का स्वाद आ सके! इसके लिए गया है। नाच गुम हो गया है। धन्यवाद दोगे या नहीं? इतने कृपण मत बनो! धन्यवाद दो! लोग अगर नाचते भी हैं अब तो बहुत निम्न तल पर नाचते हैं। कैसे धन्यवाद दोगे इसे? वह कामोत्तेजना का नृत्य होता है। अब प्रभु-उन्माद का नृत्य आदमी कितना असहाय है! नाच सकता है, गीत गुनगुना | कहीं भी नहीं होता। अब ऊर्जा ने उन ऊंचाइयों को छूना बंद कर सकता है! और क्या कर सकेगा? हमारे बस में और क्या है? दिया है। अब यहां तूफान भी उठते हैं, आंधियां भी आती हैं, तो कीर्तन का इतना ही अर्थ है, जो हम कर सकते हैं; चढ़ाने को भी जमीन का दामन नहीं छूटता। आकाश में नहीं उठ पाते! कुछ ज्यादा नहीं है! बस जो कुछ है, यह अहोभाव है। इसको ही पक्षी उड़ते भी हैं, तो ऐसा घर के चारों तरफ चक्कर लगाकर फिर हम उस समग्र के प्रति समर्पित करते हैं। वहीं बैठे जाते हैं। दूर-दूर कि खो जाए पृथ्वी, दर कि खो जाये तो कीर्तन तो एक तरह का उन्माद है। पागलपन नीड़ इतने दर आकाश में नहीं जाते। नहीं-उन्माद। भाषाकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ है: कीर्तन बड़ी दूर यात्रा है। यह परमात्मा के साथ नाचना है। जीवन के कोश में अर्थ अलग-अलग है। पागलपन है: जब जैसे तुम कभी किसी स्त्री के साथ नाचे, जिसे तुमने प्रेम किया, तुम्हारी जीवन की अवस्था खंड-खंड हो जाये, टुकड़े-टुकड़े में तो नृत्य में एक प्रसाद आ जाता है, एक गुणधर्म आ जाता है। टूट जाये; तुम एक न रह जाओ, अनेक हो जाओ। और उन्माद किसी के साथ तुम नाचो, सिर्फ नाचने के लिए, औपचारिक, तो है: जब तुम्हारे सारे खंड इकट्ठे हो जायें, तुम एक हो जाओ; उस नाच तो हो जायेगा, क्रिया पूरी हो जायेगी; लेकिन भीतर प्राणों में एक में होकर तुम नाच उठो, मस्त हो उठो! कोई रस न बहेगा। फिर किसी के साथ नाचो, जिससे तुम्हें प्रेम उन्माद, सामान्य चित्त से ऊपर जाने की अवस्था है। है, तो कामोत्तेजना का, वासना का रस बहेगा! पागलपन, सामान्य चित्त से नीचे गिर जाने की अवस्था है। दोनों कीर्तन है परमात्मा के साथ नाचना, उस परम प्यारे के साथ में एक बात समान है कि दोनों सामान्य चित्त के बाहर हैं। नाचना! तो जैसे साधारण कामोत्तेजना का नत्य काम-केंद्र के इसलिए परमहंस पागल मालूम होते हैं। इसलिए परमात्मा के आसपास भटकता है, वैसे कीर्तन सहस्रार के आसपास। तुम्हारे दीवाने भी विक्षिप्त जैसे मालूम होते हैं। एक बात समान है कि जीवन की आखिरी ऊंचाई पर, नृत्य के फूल खिलते हैं, दोनों जिसको तुम सामान्य बुद्धिमानी कहते हो उसके बाहर हो हजार-हजार कमल खिलते हैं। गए। पागल नीचे गिरकर बाहर हो गया, मस्त ऊपर उठकर ऐ मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर खुदकुशी न कर बाहर हो गया। लेकिन दोनों को एक मत समझ लेना। दोनों में तेरा इलाज जहर नहीं है, शराब है। जमीन-आसमान जैसा अंतर है। कीर्तन। भक्त तो कहता है कि जीवन से घबड़ाकर आत्महत्या न जाने क्यों जमाना हंस रहा है मेरी हालत पर | करने की तरफ मत जाओ, पागल हुए हो? जनं में जैसा होना चाहिए वैसा गिरेबां है। ऐ मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर खुदकुशी न कर! भक्त कहता है: क्यों हंस रहे हैं लोग? ये तो उन्माद में जैसा / -ऐ जीवन से उत्तप्त हुए, आत्मघात मत कर! भाग मत होना चाहिए, वैसे ही तो वस्त्र हैं, वैसा ही परिधान है। तो पागल | जीवन से! तेरा इलाज जहर नहीं, शराब है। मृत्यु तेरा इलाज को जैसा होना चाहिए, वैसा ही तो मैं हूं। लोग हंस क्यों रहे हैं! | नहीं है। जीवन की रसधार को पी लेना! परमात्मा की मधुशाला न जाने क्यों जमाना हंस रहा है मेरी हालत पर में प्रविष्ट हो जाना ही मंदिर में प्रवेश हो जाना है। जुनूं में जैसा होना चाहिए वैसा गिरेबां है। तर दामनी पर शैख हमारी न जाइए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340128
Book TitleJinsutra Lecture 28 Jivan ka Rut Bhav Prem Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size43 MB
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