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________________ जिन सूत्र भागः1 तुम्हारे भीतर आत्मा पैदा न होती। तुम बाल हो जाते बड़ी लंबी, | प्रणाम। यह भी पहली दफे कहा है। मगर भीतर गेहूं का दाना न होता। नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत नहीं मगर इस जीवन में जैसा है, सब वैसा ही जरूरी है। जो चेष्टा से जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम? मिलना चाहिए, वह चेष्टा से ही मिलता है। क्योंकि बिना चेष्टा -प्रेम कोई छिपाने की बात नहीं। के वह मिल ही नहीं सकता; वह पैदा ही नहीं होता; तुम्हारी नागुफ्तनी हदीसे-मुहब्बत नहीं मगर पात्रता ही निर्मित नहीं होती। -प्रेम कोई न कहने की बात नहीं। जो दिल की बात वह कहें क्या जबां से हम? दूसरा प्रश्नः भगवान, तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम! लेकिन जो दिल की बात है उसे कैसे जबान से कहा जाये! कहना भी चाहें तो भी कही नहीं जा सकती। जो भी कहा जा 'दर्शन' ने पूछा है। सकता है, वह बुद्धि का होता है। जो नहीं कहा जा सकता, वही प्रश्न तो है ही नहीं। 'दर्शन' की वृत्ति भी प्रश्न पूछने की नहीं | हृदय का है। है। उसने सिर्फ अपना अहोभाव प्रगट किया है। तो उसे मैंने रोते देखा है, हंसते देखा है; प्रसन्न देखा है, उदास इसे समझना। देखा है। लेकिन कभी उसने कुछ कहा नहीं। इस न कहने के जो पूछते हैं, जरूरी नहीं कि समझ पायेंगे। पूछने के कारण ही | कारण उसे बहुत कुछ मिला है, जो उनको नहीं मिल पाया जो बहुत बार तुम समझने से वंचित रह जाते हो। क्योंकि जब तुम बहुत कहने में लगे हैं। पूछते हो तो प्रश्न को तुम इतना-इतना भारी समझ लेते हो, और | लेकिन, फिर भी खामोश भी रहो, चुप भी रहो तो भी हृदय तुम प्रश्न में इतने व्यस्त हो जाते हो कि उत्तर के लिए जगह ही कुछ कहना चाहता है। नहीं कह सकता, असमर्थ पाता नहीं मिलती तुम्हारे भीतर प्रवेश पाने की। तुम उत्तर के लिए है फिर भी कुछ कहना चाहता है। कहने में, अभिव्यक्त होने दरवाजा नहीं छोड़ते। में संबंधित होना चाहता है। समझ तो वे ही सकते हैं जो पूछते नहीं। न पछना ठीक-ठीक ___ मैं हजार जब्त करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या ? उत्तर को समझ लेने का अनिवार्य चरण है। कि दयारे-नाजे-हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है। तो 'दर्शन' ने न तो कभी कुछ पूछा है सिर्फ एक बार को | उस प्रेमी के दरबार में, उस प्रेमी की महफिल में, मैं हजार जब्त छोड़कर। पहली बार जब वह मुझे मिलने आयी थी, वर्षों पहले, करूं तो क्या, मैं हजार कुछ न कहूं तो क्या न कहो, सम्हालो तब विवाद करने आयी थी। कोई बात उसे जंची न थी तो तर्क तो भी : दयारे-नाजे-हबीब में, मेरी खामुशी भी सवाल है। करने आयी थी। मैंने उसी दिन देख लिया था कि वह उलझ | लेकिन चुप रहना भी तो अभिव्यक्ति हो जाती है। न कुछ गयी, अब लौट न सकेगी। आयी थी तर्क करने, रह गयी सदा कहकर भी तो कुछ कह दिया जाता है। मौन भी तो अपनी एक को। उसके बाद उसने कभी कुछ पूछा नहीं। वर्षों बीत गये। मुखरता रखता है। और इन वर्षों में बहुत लोग आये-गये, वह फिर मेरे साथ रही। तो यद्यपि 'दर्शन' ने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन बहुत कुछ रास्ता ऊबड़-खाबड़ था तो भी कंटकाकीर्ण था तो भी। अब तो वह कहती रही है-अपनी चुप्पी से, अपने शांत मौन से। मैं धीरे-धीरे आश्वस्त हो गया हूं कि लौटकर पीछे देखेंगा तो अनेक बार मैंने उससे पूछा भी है, लेकिन फिर भी वह बचा गयी, कोई भी न हो, तो भी 'दर्शन' होगी। उसने कुछ कहा नहीं है। वह छाया की तरह पीछे रही है। पहले ही दिन विवाद उसने | ऐसी भाव दशा जल्दी ही परम फलों को उपलब्ध होती है। छोड़ दिया। संवाद शुरू होता है तभी, जब हम विवाद छोड़ते और आज उसने पहली दफा लिखा है। एक बार और उसने पत्र हैं। उत्तर पहुंचने लगता है तभी जब हम प्रश्न छोड़ देते हैं। उसने लिखा था-वह भी खाली कागज भेजा था; उसमें कुछ लिखा कुछ पूछा नहीं, इतना सिर्फ कहा है, तुम्हारे चरणों में शत-शत नहीं था। उत्तर मैं उसका भी दिया था। क्योंकि खाली कागज में 522 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340124
Book TitleJinsutra Lecture 24 Mang Nahi Ahobhav Ahogati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size28 MB
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