SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनुष्यो, सतत जाग्रत रहो बन सकता है, मैं कुछ कर देता हूं। लेकिन तुम कहते हो, तुम्हें | भी दौड़ नहीं रुकती! अब उन रुपयों का कुछ भी नहीं कर जो होना हो तुम वही होना; मेरी मत सुनना। मैं तो असफल सकते। अब कुछ भी बचा नहीं है, जो उनसे खरीदा जा सके; हुआ ही हुआ; अब मैं तुम्हें और खराब न कर जाऊंगा। जो भी खरीदा जा सकता था वह सब खरीद लिया, लेकिन फिर एक बात, अगर मां-बाप थोड़े भी जाग्रत हों, तो निश्चित भी दौड़ जारी रहती है। यह कोई विक्षिप्त दौड़ है। यह कोई करेंगे-वे बच्चों को सजग कर देंगे कि हमने तो जिंदगी गंवाई पागलपन है। इस पागलपन से जो मुक्त हो जाता है, उसके कर्म ही गंवाई, तुम मत गंवा देना! कृपा करके हम जैसे तो बनना ही बांधते नहीं। उसके कर्म प्राकृतिक कर्म हो जाते हैं, नैसर्गिक कर्म मत और कुछ भी बन जाना; क्योंकि यह तो हमने होकर देख | हो जाते हैं। लिया। इस होने से तो कुछ भी न पाया। | प्रमाद को इसलिए महावीर कर्म कहते हैं। करने को कर्म नहीं सोया हुआ बाप उलटी कोशिश करता है। वह कहता है, मेरे कहते, करने में जो बेहोशी है उसको कर्म कहते हैं। यह थोड़ा जैसे! बच्चे उससे थोड़े भिन्न होने लगते हैं तो वह नाराज होता सोचने जैसा है। यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। तुम क्या करते हो, है। वे प्रतिकृति होने चाहिए। वे ठीक मेरी प्रतिमा होने चाहिए। यह सवाल नहीं है-तुम होश में रहकर करते हो कि बेहोश 'मेरे' हैं, तो उनके माध्यम से किसी तरह का अमरत्व खोजा रहकर करते हो। यह तो कर्म की बड़ी अनूठी व्याख्या हुई। 5 मैं तो मिट जाऊंगा. लेकिन मेरी प्रतिमाएं छुट | प्रम जायेंगी। कोई सिलसिला मेरा जारी रहेगा। ___ ‘पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवंर।' कर्म तो वही हैं। कबीर भी कपड़ा बुनते हैं, बाजार में बेचने तो जाग जाओ, कर्म तो तब भी जारी रहेगा। आखिर महावीर जाते हैं। गोरा कुम्हार मटकियां बनाता है, बाजार में बेचता है। भी जाग गये, फिर भी तो कोई चालीस साल जीवित रहे, कर्म तो रैदास जिंदगी भर जूते बनाते रहे। लेकिन कुछ फर्क हो गया। किया ही; उठे भी, सोये भी, भोजन भी किया, उपवास भी कबीर अब भी कपड़ा बनाते हैं, लेकिन अब इसमें कोई व्यवसाय | किया, ध्यान भी किया, मौन भी किया, बोले भी, चुप भी नहीं है। अब इससे कुछ धन कमा लेकर धन के ऊपर सांप रहे-सब कर्म चलता रहा। लेकिन यह कर्म अब बांधता नहीं बनकर बैठ जाने की आकांक्षा नहीं है। जरूरी है; रोटी के लिए, है। अब इस कर्म में कोई तंद्रा नहीं है, अब कोई मूर्छा नहीं है। कपड़े के लिए कर लेते हैं। आवश्यक है, कर लेते हैं। इसमें अब यह सोये-सोये नहीं हो रहा है, यह जागकर हो रहा है। अब कोई वासना नहीं है। __ जैसे ही तुम जागते हो, जीवन शुद्ध जरूरतों पर आ जाता है। जरूरत और वासना के भेद को समझना। जरूरतें तो सभी की जो गैर-जरूरी है, उसकी पकड़ नहीं रह जाती। ऐसा समझो कि / जरूरतें तो जीवन का अंग हैं। वासनाएं आज अचानक तम्हें खबर मिले कि पना में भूकंप होने को है और विक्षिप्तताएं हैं। वे कभी पूरी नहीं होती। और उनका जीवन की | तुम्हें थोड़ी-सी ही चीजें बचाकर निकलने का मौका है, और तुम किसी जरूरत से कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी सम्राट होना सारा घर का सामान इकट्ठा कर लो, और सोचो कि क्या बचायें चाहता है, इसका जीवन की जरूरत से क्या संबंध है? हां, और क्या छोड़ें। तुम चकित होओगे यह जानकर और यह भूखा रोटी मांगता है, यह समझ में आता है। नंगा कपड़ा चाहता विचार तुम्हारे मन में जरूर आयेगा कि यह इतना व्यर्थ का है, यह समझ में आता है। लेकिन कोई आदमी सम्राट होना सामान इकट्ठा क्यों किया। इसमें बहुत थोड़ा ही काम का होगा चाहता है। अब यह सम्राट होने से किसी भी जरूरत का कोई जो तुम ले जा सकोगे। और जब तुम चुनने लगोगे, तुम्हें खुद ही संबंध नहीं है। समझ में आयेगा, दस में से नौ चीजें तुम खुद ही छोड़े दे रहे हो। तुम्हें प्यास लगी है. पानी चाहिए। तुम धप में खड़े हो, छप्पर | लेकिन इनको इकट्ठा करने में बड़ा समय व्यतीत किया। इनको चाहिए-समझ में आता है। लेकिन धन का एक ढेर इकट्ठा करने में पागल की तरह दौड़े। इनको इकट्ठा करने में लगा-लगाकर तुम उस धन के ढेर पर बैठे रहो, यह बात रुग्ण जीवन की बड़ी संपदा खोयी और कूड़ा-कर्कट इकट्ठा किया। है, यह विक्षिप्त है। अरबों रुपये हो जाते हैं लोगों के पास, तब इसको ले जाने के क्षण में, तुम खुद ही सोचोगे कि इसमें 3311 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340115
Book TitleJinsutra Lecture 15 Manushyo Satat Jagrat Raho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy