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________________ पहला प्रश्न : मेरे घरवाले तथा दूसरे भी आपको स्वयं से आता है। धर्म को भ्रष्ट करने वाला कहते हैं। लेकिन मेरा निश्चित ही, शास्त्र भी कभी स्वयं से आये थे। लेकिन वह मन कहता है: घटना घटे बहुत देर हो गई। उस घटना पर बहुत राख जम गई परवरदिगार आलम तेरा ही है सहारा समय की। उस घटना पर बहुत व्याख्याओं की पर्ते जम गईं। तेरे बिना जहां में कोई नहीं हमारा। जब कृष्ण ने बोला था तो उन्होंने तो अंतस्थल से बोला था। किंतु यह तो मेरा मत हुआ। रहना तो उन लोगों के साथ है जो लेकिन गीता पर तो बहुत धूल जम गई। गीता के तो बहुत अर्थ आपके विरोध में हैं। अतः कृपापूर्वक बताएं कि कैसे अपने हो गए। इतने अर्थ हो गए कि अनर्थ हो गया। सत्य की रक्षा करूं? इसलिए जिन्होंने शास्त्र में धर्म को जाना है, उन्हें तो लगेगा, मैं नष्ट करता हूं। क्योंकि मैं कहता हं, शास्त्र से मुक्त हो जाओ। पहली बात, घरवाले ठीक ही कहते हैं। उनसे नाराज मत मेरी गीता में उत्सुकता नहीं, कृष्ण के चैतन्य में उत्सुकता है। होना। जिसे वे धर्म कहते हैं, उसे निश्चित ही मैं भ्रष्ट करता हूं। गीता तो उस चैतन्य से निकला हुआ उच्छिष्ठ है। अगर होना ही उनकी बात में कुछ भूल नहीं है। उनकी बात सीधी-साफ है। है कुछ तो कृष्ण ही हो जाओ। लेकिन कृष्ण होने के लिए तो मेरे और उनके धर्म की परिभाषा अलग है। अगर तुम्हारी भी भीतर जाना पड़े। कृष्ण होने के लिए तो जीवन दांव पर लगाना परिभाषा उनके धर्म की परिभाषा से अलग हो जाये, तो तुम पड़े। कृष्ण होने के लिए तो मरना पड़े, तो ही पुनर्जन्म हो, तो ही नाराज न होओगे, तुम परेशान भी न होओगे। तुम्हारी परेशानी नया जीवन हो। वह तो सौदा महंगा है। यह है कि तुम्हारी भी धर्म की परिभाषा वही है जो उनकी परिभाषा लोग सस्ता धर्म चाहते हैं। वे चाहते हैं, बिना कुछ किए मिल है। इसलिए उनकी बात चोट करती है, उनकी बात से पीड़ा होती जाए; बिना कुछ किए धार्मिक होने का सुख मिलने लगे; बिना है। तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं धर्म को नष्ट नहीं करता। कुछ किए अहंकार पर धर्म भी आभूषण की तरह सजावट दे, तुम सिद्ध करना चाहते हो कि मैं तो धर्म को, धर्म-चक्र को शंगार दे। प्रवर्तित करता है। लेकिन धर्म के संबंध में तुम्हारी भूल है। मैं जो धर्म की बात कर रहा हूं, वह तुम्हें जलाएगा, गलाएगा उन्होंने जो धर्म जाना है, वह है परंपरा का धर्म। मैं परंपरा के | मिटाएगा। यह सिर्फ थोड़े से लोगों के लिए हो सकता है। विपरीत हूं। क्योंकि मैंने जो धर्म जाना है, वह है नितनूतन, भीड़ सदा ही शास्त्र को मानेगी। क्योंकि भीड़ इतनी हिम्मतवर प्रतिक्षण नया, शाश्वत, लेकिन फिर भी नितनूतन। उन्होंने जो भी नहीं है कि कह दे कि हम अधार्मिक हैं, कह दे कि हम धर्म जाना है, वह शास्त्र से आता है। मैंने जो धर्म जाना है, वह नास्तिक हैं। और इतनी हिम्मतवर भी नहीं है कि सत्य को स्वयं 207 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340110
Book TitleJinsutra Lecture 10 Zindagi Nam Hai Ravani Ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size39 MB
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