________________ 225-380 जिन सूत्र भागः 1 प्रक्रियाएं जारी रखी कि तुम अपने भीतर विचार भी चलाते रहे, | कीडा-मकोडा समझने लगोगे; आदमी, स्त्री, हिंदू, मुसलमान, तर्क भी करते रहे, विवाद भी करते रहे, तालमेल भी बिठाते रहे, ब्राह्मण, शूद्र समझने लगोगे। रहोगे परमात्मा और किसी तो तुम मुझे न सुन पाओगे। तुम्हारा शोरगुल इतना ज्यादा होगा, छोटी-सी चीज से अपना संबंध बना लोगे: कहोगे—यही मैं हं. तुम कैसे मुझे सुन पाओगे? फिर तुम जो निष्कर्ष लोगे वह | यही मैं हूं, यही मैं हूं! मिथ्यात्व होगा। लौटो भीतर की तरफ! ध्यानस्थ होओ! धीरे-धीरे तुम्हारी 'मिथ्या-दष्टि जीव तीव्र कषाय से परी तरह आविष्ट होकर दष्टि क्षद्र से छटेगी। जैसे अपनी तरफ लौटोगे, अचानक जीव और शरीर को एक मानता है। वह बहिरात्मा है।' | पाओगेः न तो मैं शरीर हूं न मैं मन हूं, न मैं हिंदू न मैं मुसलमान, महावीर कहते हैं, आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं: न ब्राह्मण न शूद्र, न जैन न ईसाई, न स्त्री न पुरुष, न गरीब न बहिरात्मा–जब तुम वासना से बाहर बहे जाते हो; अमीर, न सुखी न दुखी। जैसे-जैसे भीतर आने लगोगे, द्वंद्व अंतरात्मा-जब तुम ध्यान से भीतर चले आते हो; और | छूटने लगे-दूर खोने लगे, आकाश में कहीं! रह गए परमात्मा--जब बाहर-भीतर दोनों खो गये। स्वप्नवत। स्मृति रह गयी। फिर एक दिन अचानक घर में प्रवेश हो तो तुम वही। हो तो तुम परमात्मा ही। लेकिन जब हो जाएगा। तुम अपने स्वरूप में थिर हो जाओगे। परमात्मा बाहर की तरफ बह रहा है तो बहिरात्मा। जब पदार्थ में स्वरूप में थिर हो जाना स्वस्थ हो जाना है। स्वस्थ यानी स्वयं रुचि है, वस्तु में रुचि है, दूसरे में रुचि है, विषय-वस्तु में रुचि | में स्थित ! परमात्मा हुए, परमात्मा प्रगट हुआ। है; जब तुम अपने को इतना भूल गये हो कि बस पदार्थ ही सब महावीर की विचार-सरणी में परमात्मा प्रकृति के प्रारंभ में नहीं कुछ हो गया, धन के दीवाने हो, पद के दीवाने हो—तब तुम है। परमात्मा, जब प्रकृति का परिपूर्ण उन्मेष और विकास हो बहिरात्मा। बहिरात्मा यानी आत्मा बाहर की तरफ बहती हुई। जाता है, तब है। और परमात्मा एक नहीं है; उतने ही परमात्मा फिर विचार शुरू हुआ। बहुत जले, इतने जले कि दूध का जला | हैं, जितने जीवन-बिंदु हैं। हर बिंदु सागर हो जाता है। उतने ही छाछ भी फंक-फूंककर पीने लगा! विचार का जन्म हआ, | सागर हैं जितने बिंद हैं। विवेक उठा, तब तुम भीतर लौटने लगे, अंतर्यात्रा शरू इसलिए परमात्मा, महावीर ही दृष्टि में, कोई तानाशाही की हुई-तब अंतरात्मा। धारणा नहीं है। बड़ी लोकतांत्रिक धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति हो तो तुम वही दिशा बदली, आयाम बदला, तुम्हारा परमात्मा है। प्रत्येक व्यक्ति की नियति परमात्मा है, स्वभाव गुणधर्म बदला; अभी तुम घर के बाहर जाते थे, अब तुम घर की | परमात्मा है। तरफ आने लगे; अभी संसार की तरफ मुंह था, अब पीठ हो| महावीर ने तुम्हारे भीतर के परमात्मा को पुकारा है-किसी गयी; अभी सन्मुख संसार था, अब तुम आत्म-सन्मुख हुए; | परमात्मा की पूजा के लिए नहीं; किसी परमात्मा की अर्चना के फिर पहुंच गये घर; फिर तुम अपने में लीन हो गये; फिर लिए नहीं-अपने परमात्मा को पाने के लिए। और जब तक स्वभाव उपलब्ध हो गया-तब परमात्मा। कोई परमात्मा की अवस्था को उपलब्ध न हो जाए...ध्यान अब न कुछ बाहर है, अब न कुछ भीतर है। द्वंद्व गया, दुई रखना, परमात्मा अवस्था है, व्यक्ति नहीं...तब तक जीवन दुख मिटी। द्वंद्वात्मकता खोयी, निर्द्वद्व हुए। निग्रंथ हुए। इसको | से भरा रहता है; तब तक अंधेरी रात नहीं टूटती। महावीर कहते हैं मोक्ष-अवस्था। उठो! चलें! उस सूरज की खोज करें जो तुम्हारे भीतर छिपा बहिरात्मा को अंतरात्मा बनाना है, अंतरात्मा को परमात्मा है। जागो! थोड़ा हलन-चलन करो। थोड़ी गति करो। उसकी बनाना है। परमात्मा तुम हो ही, सिर्फ यात्रा के रुख बदलने हैं, | खोज करो जो तुम्हारे भीतर पड़ा ही है; जिसे तुम सदा ही अपने दिशा बदलनी है। जो तुम हो, वही हो सकते हो। जो तुम हो ही, भीतर छिपाये रहे हो, लेकिन नजर नहीं दी, उस तरफ आंख नहीं वही होओगे। लेकिन अगर विपरीत चले जाओ, मिथ्यात्व में फेरी। जैसे ही तुम भीतर की तरफ नजर को फेरते हो, मिथ्यात्व खो जाओ, तो तुम रहोगे भी परमात्मा, लेकिन अपने को सरकने लगता है, खोने लगता है। 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.