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________________ संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत संघर्ष वहां अनिवार्य है। 'जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है साधक, जब जिन तथा केवली होकर...।' जिन का अर्थ है, जिसने अपने को जीत लिया। अपने को जीतने का अर्थ है, जो दूसरे पर किसी भी अर्थों में निर्भर नहीं रह गया है। दूसरे की निर्भरता जहां पूर्णतया समाप्त हो जाती है, वहां महावीर कहते हैं, व्यक्ति जिन हुआ। और अपने को जिन कहने का हकदार वही है, जो किसी पर किसी भी कारण से निर्भर नहीं है। जो अपने में पर्याप्त है। जिसका होना काफी है। जिसकी चेतना किसी की भी तलाश में नहीं जाती। जो किसी को भी खोजता नहीं है; और कोई न मिले, तो जरा भी पीड़ा नहीं होती। जो अपने साथ रहकर इतना प्रसन्न है कि उसकी प्रसन्नता में कोई भी कमी नहीं है। ___ अपने ही साथ जो प्रफुल्ल है, उसे महावीर कहते हैं, जिन / और केवली उसे कहते हैं, जिसे इस ज्ञान का अनुभव हो गया है; जिसकी कोई बाधा नहीं है, जिस पर कोई अवरोध नहीं है / जो फैलता ही चला जाता है। जो अनंत प्रकाश है। भीतर के इस अनंत प्रकाश का जिसे अनुभव हो गया। महावीर ने शब्द बड़ा अनूठा चुना है : केवली-अलोन, अकेला, एकाकी, जहां सिर्फ ज्ञान ही रह जाये। __ उपनिषदों में कहा जाता है कि जगत का ज्ञान एक त्रिवेणी है। वहां जाननेवाला है, जानी जानेवाली वस्तु है, और दोनों के बीच का संबंध है, ज्ञान / वहां तीन हैं। __ प्रयाग आप गये होंगे। वहां कुंभ भरता है; त्रिवेणी का मेला जुड़ता है। लेकिन त्रिवेणी बड़ी मजे की है ! नदियां वहां दो हैं, तीसरी, कहते हैं, कभी थी। कभी भी नहीं थी। तीसरी अदृश्य है / सरस्वती अदृश्य है, यमुना और गंगा प्रगट हैं। यह त्रिवेणी प्रतीक है भीतर के संगम का। इस जगत में जो ज्ञान की घटना घटती है, जो तीर्थ निर्मित होता है ज्ञान का, वह तीन से निर्मित होता है : वस्तु, आब्जेक्ट, ज्ञेय; ज्ञाताजाननेवाला, सब्जेक्ट; और दोनों के बीच निर्मित होनेवाली तीसरी धारा जो दिखाई नहीं पड़ती-ज्ञान / वह ज्ञान, सरस्वती है। __ इसलिए सरस्वती ज्ञान की प्रतिमा है। और वह नदी कभी भी नहीं रही दुनिया में / वह हो नहीं सकती। उसके होने का कोई कारण नहीं है। अदृश्य उसका स्वभाव है। पदार्थ दिखाई पड़ता है, देखनेवाला दिखाई पड़ता है; दृश्य दिखाई पड़ता है, द्रष्टा दिखाई पड़ता है; दर्शन दिखाई नहीं पड़ता। ज्ञाता, ज्ञेय दिखाई पड़ता है-ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता। ___ मैं यहां बैठा हूं, आपको देख रहा हूं। मैं हूं, आप हैं, और दोनों के बीच एक सरस्वती बह रही है जो दिखाई नहीं पड़ती-जानने की, ज्ञान की, बोध की, दर्शन की / इन तीनों से मिलकर इस जगत का सारा ज्ञान निर्मित हुआ है। महावीर कहते हैं, जब ज्ञाता भी मिट जाये, ज्ञेय भी मिट जाये, केवल सरस्वती रह जाये; वह जो अदृश्य है, वही एकमात्र शेष रह जाये। जो दृश्य हैं, वे दोनों खो जायें। क्योंकि दृश्य पदार्थ है, अदृश्य चैतन्य है। ___ अब यह बड़े मजे की बात है, आप जब प्रयाग जाते हैं तो गंगा-यमुना दिखाई पड़ती हैं, सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। भीतर एक ऐसा प्रयाग भी है, जहां सिर्फ सरस्वती दिखाई पड़ती है—गंगा-यमुना दोनों खो जाती हैं। जहां गंगा-यमुना खो जाती हैं, सरस्वती मात्र रह जाती है, उस अवस्था का नाम 'केवल' है। ___ जो दिखाई पड़ता है, वह नहीं दिखाई पड़ता वहां, और जो नहीं दिखाई पड़ता है, वही केवल दिखाई पड़ता है। इस जगत का दृश्य वहां अदृश्य हो जाता है और उस जगत का अदृश्य यहां दृश्य हो जाता है। इस जगत से वह बिलकुल विपरीत है। यहां जो अदृश्य है, वहां दृश्य हो जाता है। पदार्थ और पदार्थ के जाननेवालों के बीच, दोनों किनारों के बीच, एक तीसरी अदृश्य धारा बह रही है ज्ञान की। महावीर कहते हैं, 563 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340054
Book TitleMahavir Vani Lecture 54 Sanyas Prarambha hai Siddhi Ant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size74 MB
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