________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है? और इन्द्र के सिंहासन में ऐसा क्या ऋषि-मुनि को रस हो सकता है? और इन्द्र इतना भयभीत क्यों होता है कि एक काम्पटीटर, एक प्रतियोगी पैदा हो गया? और इन्द्र वहां कर क्या रहा है-सिवाय नाच-गाने, खाने-पीने के और वहां कुछ हो नहीं रहा है! स्वर्ग का मतलब है : जहां इस संसार के सब दुख काट दिये हैं, और इस संसार के सब सुख अपनी पराकाष्ठा में रख दिये हैं। स्त्रियां वहां सोलह साल पर रुक जाती हैं, उससे ज्यादा उनकी उम्र नहीं बढ़ती।। यहां भी कोशिश तो बहुत करती हैं। मजबूरी है, कितनी ही कोशिश करो, शरीर तो उम्र पा ही लेता है। लेकिन वहां वह कोशिश सफल हो गयी है। स्वर्ग में सोलह वर्ष पर सारी अप्सराएं रुक गयी हैं-उससे ज्यादा उम्र नहीं होती। शरीर स्वर्ण-कांचन के पारदर्शी हैं। ट्रान्सपेरेन्ट कपड़े ही नहीं हैं-'सीधु' कि कपड़ों के पीछे से देख लो, शरीर भी 'सीधु', पारदर्शी है; सब दिखाई पड़ेगा। कल्पवृक्ष हैं—जिनके नीचे जो ऋषि-मुनि तपश्चर्या करके पहुंच जाते हैं, वे बैठे हैं। जो भी वासना करो, तत्क्षण पूरी हो जाती है। यहां संसार में समय लगता है। कोई वासना करो, मेहनत करो, उपद्रव करो, भारी दौड़-धूप करो-जब तक पहुंचो, अधमरे हो चुके होते हैं। तो वासना भोगने की क्षमता उस वासना को प्राप्त करने की चेष्टा में ही नष्ट हो गयी होती है। लेकिन वहां वर्ग में, कल्पवृक्ष के नीचे, वासना का उठना और पूरा होना तत्क्षण है; युगपत है—साइमल्टेनियस! किन्होंने यह स्वर्ग-कामना की है? किन्होंने यह स्वर्ग बनाया है? किनके सपनों का यह साकार रूप है? संयमी का? तो इसका मतलब हआ कि यहां स्त्रियां छोड़ो ताकि वहां बेहतर स्त्रियां मिल सकें। कहां क्षद्र धन की खोज में पड़े हो, कल्पवृक्ष की खोज करो। तो भोगी कौन है? दो तरह के भोगी हुए : एक जो नासमझ हैं, क्षुद्र के पीछे दौड़ रहे हैं; एक जो समझदार हैं, जो शाश्वत के पीछे दौड़ रहे हैं जो ज्यादा चालाक हैं; ज्यादा होशियार हैं। महावीर इसको संयमी नहीं कहते। महावीर कहते हैं कि अगर यहां किसी ने अपने को दबाया, तो वह किसी परलोक में भोगने की कामना से भर जायेगा। और यह कामना इतनी बेहूदी हो सकती है कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। एक धर्म में न केवल वहां हूरों और स्त्रियों का इंतजाम है, वहां गिल्मों, खूबसूरत लड़कों का भी इंतजाम है-बहिश्त में। क्योंकि जब वह धर्म पैदा हुआ तो उस देश में होमो-सेक्सुअलिटी प्रचलित थी। और पुरुष पुरुषों से भी प्रेम कर रहे थे। जब वह धर्म पैदा हुआ तो उसको अपने स्वर्ग में यह भी इंतजाम करना पड़ा कि वहां हूरें तो हैं ही खूबसूरत, लेकिन गिल्में, लौंडे भी वहां उपलब्ध हैं। __ जिनके मन से यह वासना उठती होगी, इनको महावीर संयमी किस हालत में कह सकते हैं। यह संयम नहीं है। यह तो यहां दबाना की कोशिश है। यह तो दमित वासना का विकृत रूप है। इसलिए महावीर कहते हैं, स्वर्ग का आकांक्षी वस्तुतः धार्मिक व्यक्ति नहीं है। मोक्ष का आकांक्षी धार्मिक व्यक्ति है। यह जरा समझने-जैसा है कि महावीर स्वर्ग और नरक को तो आपका ही फैलाव मानते हैं। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। नरक वह जगह है, जहां आप दूसरों को भेजना चाहते हैं और स्वर्ग वह जगह है जहां आप जाना चाहते हैं। और कोई फर्क नहीं है। __ महावीर कहते हैं कि मोक्ष वह जगह है जहां आप हैं-अभी भी, इस क्षण भी। जो आपका स्वभाव है। वह कोई स्थान नहीं है, एक आंतरिक बोध की अवस्था है। इसलिए उस अवस्था को हम 'बुद्धत्व' कहते हैं। जहां बोध पूरा जग गया, वहां बुद्धत्व है। 'जब साधक पुण्य, पाप, बंध, और मोक्ष को जान लेता है, तब देवता और मनुष्य संबंधी काम-भोगों की व्यर्थता को जान लेता है।' तो देवता भी व्यर्थ ही भटक रहे हैं। इन्द्र भी इन्द्रियों के पार नहीं है। इसीलिए हमने उसको 'इन्द्र' नाम दिया है कि वह इन्द्रियों 528 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org