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________________ संयम है संतुलन की परम अवस्था या तो भोग के अनुभव से गुजरो ताकि ऊब जाओ; और या फिर भीतर के विवेक को जगाओ ताकि शरीर की पकड़ खो जाये। इन दोनों से बचकर साधु तीसरे काम में लगा रहता है। ___ ये साधु जो सम्मेलन करते हैं कि अश्लील पोस्टर नहीं होने चाहिए, इनको जरूर कुछ बेचैनी है। बेचैनी यह है कि तुम सब मजा ले रहे हो! और ये बेचारे बड़े परेशान हैं। इनकी परेशानी का अंत नहीं है। ___ अगर ये सच में ही संयम को उपलब्ध हुए होते और अगर इनको पता चला होता कि आत्मा और शरीर अलग हैं, तो ये कहते कि-ठीक है, ये शरीर के नग्न चित्र हैं, शरीर कोई आत्मा नहीं है-इसमें चिंता की क्या बात है? __ लेकिन यह ज्ञानी भी, अगर स्त्री इसको छू ले, तो हटकर खड़ा हो जाता है। और यह कहता रहता है कि शरीर और आत्मा अलग हैं! और स्त्री का शरीर, तो बहुत दूर, उसका कपड़ा छ जाये तो भी इसमें रोमांस पैदा होता है। यह हटकर खडा हो जाता है। जो साधु स्त्रियों को अपने पैर नहीं छ्ने देता, स्त्रियां उसमें बड़ी उत्सूक होती हैं कि जरूर गजब का आदमी है! स्त्री उसी आदमी में उत्सुक होती है जो स्त्रियों में उत्सुक न हो। क्योंकि तब उसे लगता है कि जरूर अदभुत है! __तो साधु स्त्री को पैर न छूने दे, पास न आने दे तो स्त्री भी मानती है, महात्मा पूरा है। लेकिन यह महात्मा को अभी इतना भी पता नहीं चल रहा है कि स्त्री की आत्मा तो कुछ स्त्री होती नहीं; पुरुष की आत्मा कोई पुरुष होती नहीं-शरीर ही में स्त्री और पुरुष होते हैं। और शरीर में भी क्या रखा है? स्त्री-पुरुष का भेद क्या है? अगर जीवशास्त्री से पूछे तो वह कहता है, बच्चा जब पैदा होता है, तो उसके शरीर में दोनों ही अंग होते हैं-स्त्री-पुरुष के। कोई तीन सप्ताह बाद फर्क होना शुरू होता है। फर्क भी बड़ा मजेदार है। फर्क वही है जो शीर्षासन में होता है। पुरुष की इन्द्रियां बाहर आ जाती हैं, वे ही इन्द्रियां स्त्री में भीतर की तरफ मुड़ जाती हैं-जैसे कोट के खीसे को आप उलटा कर लें। बस, इतना फर्क है! जरा भी फर्क नहीं है। जो शरीर की चमड़ी बाहर लटक जाती है वह पुरुष की इन्द्रिय बन जाती है, वही चमड़ी भीतर की तरफ सरक जाती है तो स्त्री की इन्द्रिय बन जाती है। बस,इतना ही फर्क है : कोट का पाकेट उलटा या सीधा! लेकिन यह शरीर का जिनको अनुभव हो रहा है कि शरीर-आत्मा अलग हैं, उनको भी इतने फर्क में इतना रस मालुम पड़ता है। वह रस उनके रोग की खबर देता है। उन्होंने जबरदस्ती अपने को रोक लिया है, कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ। जबरदस्ती मुक्त नहीं कर सकती, सिर्फ समझ, अंडरस्टेडिंग, होश मुक्त कर सकता है। महावीर कहते हैं : जब कोई व्यक्ति अपने इस आंतरिक भेद को जान लेता है तब पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष सभी जान लिये जाते हैं। जब पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष जान लिये जाते हैं, तब देवता और मनुष्य संबंधी काम-भोगों की व्यर्थता स्पष्ट हो जाती है। उनसे विरक्ति सहज फलित होती है। यह जरा समझने जैसा है। क्योंकि जो आदमी जबरदस्ती दमन के द्वारा अपने को संयमी बना लेता है, भीतर पूरा अंधेरा रहता है, बाहर-बाहर इंतजाम कर लेता है अपने को रोकने का, इसकी वासना...इस जगत से भला यह अपनी वासना को भीतर रोक ले, दूसरे जगत में संलग्न हो जाती है। यह स्वर्ग की कामना करने लगता है। ___ आपको पता होगा, कथाएं हैं कि जब भी कोई ऋषि-मुनि अपनी तपश्चर्या में पूर्ण होने लगता है तो इन्द्र का सिंहासन डोलने लगता यह बड़े मजे की बात है कि इन्द्र का सिंहासन किसी ऋषि-मुनि के तपस्या में ऊपर उठ जाने से क्यों डोलता है? इसमें क्या संबंध 527 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340052
Book TitleMahavir Vani Lecture 52 Samay hai Santulan ki Param Avastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size80 MB
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