________________ कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु वह भी गलत है / आज तक दुनिया में कोई किसी को सुखी नहीं कर पाया / अकसर तो यह भी हो जाता है कि सुखी करने की कोशिश में आप किसी को और दुखी कर देते हैं। और कोई किसी का दुख भी नहीं छीन सकता, क्योंकि दुख आते हैं भीतरी कारणों से / बाहर कोई उपाय नहीं है। लेकिन ध्यान रहे, ईसाइयत की इस धारणा में एक खतरा और भी छिपा है। और वह यह कि अगर मुझे यह खयाल आ जाये कि मैं अपने कर्मों से किसी को सुखी कर सकता हूं और किसी को दुखी कर सकता हूं, तो इसी का अनुसांगिक तर्क भी है कि दूसरे अपने कर्मों से मुझे सुखी और दुखी कर सकते हैं। तब सारी बात अस्त-व्यस्त हो जायेगी। क्योंकि अगर दूसरे मुझे सुखी और दुखी कर सकते हैं, तो मेरे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। अगर मोक्ष में भी आप पहंच जायें और मुझे दुखी करने लगे, तो मैं क्या करूंगा? और मोक्ष में भी तो कछ लोग होंगे ही, जो सेवा भी करना चाहेंगे। क्या करूंगा मैं? ___ महावीर का तर्क बहुत शुद्ध है। महावीर कहते हैं, दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता, यह तुम्हारी मुक्ति का आधार है। तो ही आत्मा मुक्त हो सकती है, अगर दूसरा बिलकुल असमर्थ है कुछ करने में / नहीं तो आत्मा के मुक्त होने का कोई उपाय नहीं / इसलिए महावीर ने ईश्वर को भी अलग हटा दिया अपनी धारणा से और कहा कि अगर ईश्वर है तो मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। लोग सोचते हैं कि ईश्वर के बिना मुक्ति कैसे होगी ! और महावीर कहते हैं कि अगर ईश्वर है तो मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह गड़बड़ कर सकता है। वह परम शक्तिशाली है। उसी ने तुम्हें बनाया, वह तुम्हें मिटा सकता है / वह तुम्हें गुलाम कर सकता है। वह तुम्हें मुक्त कर सकता है। उसकी प्रार्थना-पूजा से तुम मुक्त हो सकते हो. तो फिर मक्ति का कोई अर्थ नहीं / जो मोक्ष प्रार्थना से मिल सकता है, वह मोक्ष नहीं है—हो नहीं सकता। क्योंकि कोई दूसरा जिसे दे रहा है, वह मेरी मुक्ति नहीं है / और जब दूसरा दे सकता है, तो दूसरा वापस भी ले सकता है। . ___ इसलिए महावीर ने कहा, जब तक ईश्वर की धारणा है, तब तक जगत में मोक्ष का कोई उपाय नहीं है। इसलिए ईश्वर को अलग कर दिया बिलकुल, और प्रत्येक व्यक्ति को आंतरिक रूप से नियंता घोषित किया कि तुम जो भी कर रहे हो, जो भी भोग रहे हो, जो भी पा रहे हो, नहीं पा रहे हो तुम ही कारण हो। ___व्यक्ति मूल कारण है अपने जीवन का, बाकी सब निमित्त हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं जैसा तेरापंथ ने लिया है। जिन्होंने तेरापंथ की धारणा विकसित की, वे जरूर वे ही लोग होंगे, जो महावीर को ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं। दूसरे की सेवा करने का भाव, दूसरे को सुख में ले जाएगा ऐसा नहीं है, लेकिन तुम्हारा श्रम तुम्हें सुख में ले जायेगा / दूसरे को दुखी करने से दूसरा दुखी होगा-ऐसा नहीं, लेकिन दूसरे को दुखी करने की वासना स्वयं का दुख निर्मित करती है। - कृष्ण ने गीता में कहा है कि आत्मा मरती नहीं। तो अर्जुन को कहा है कि तू मार बेफिक्री से, क्योंकि कोई आत्मा मरती नहीं। इसलिए अहिंसा का और हिंसा का कोई सवाल ही नहीं उठता। महावीर भी कहते हैं, आत्मा मरती नहीं; कोई मार सकता नहीं। पर महावीर हिंसा-अहिंसा का बड़ा सवाल उठाते हैं। __ कृष्ण की दलील समझने जैसी है। कृष्ण कहते हैं, जब कोई मारा ही नहीं जा सकता, तो लोगों को यह समझाना कि मत मारो, मूढ़तापूर्ण है। जब मारने का कोई उपाय ही नहीं है, तो यह कहने का क्या अर्थ है कि मत मारो ! और अगर कोई नहीं भी मार रहा है तो कौन-सा गुण उपलब्ध कर रहा है। क्योंकि मार सकता कहां है ? जब हम एक आदमी को काटते हैं, तो शरीर ही कटता है / वह मरा ही हुआ है / उसको मारने का कोई उपाय नहीं है। आत्मा कटती नहीं। कृष्ण कहते हैं : न हन्यमाने शरीरे-काटो कितना ही, तो भी कटती नहीं / छेदो तो छिदती नहीं / जलाओ तो जलती नहीं / तर्क कृष्ण 475 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org