SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर-वाणी भाग : 2 भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। ....राग, द्वेष तथा भय से रहित है।' राग, द्वेष से रहित कौन हो सकता है ? राग और द्वेष दो चीजें नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं / जो राग से भरा है, वह द्वेष से भी भरा होगा; जो द्वेष से भरा है, वह राग से भी भरा होगा। लेकिन इसे समझा नहीं गया है। आमतौर से तो हालत बड़ी उलटी हो गयी है। दुनिया में दो तरह के लोग हैं इस वक्त : राग से भरे हुए लोग, जिन्हें हम गहस्थ कहते हैं और द्वेष से भरे हए लोग, जिनको हम साधु-संन्यासी कहते हैं / जिस-जिस चीज से आपको राग है, साधु को उसी-उसी से द्वेष है। लेकिन महावीर कहते हैं, राग और द्वेष दोनों से जो मुक्त है, वह ब्राह्मण है। क्योंकि द्वेष राग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। एक आदमी स्त्री के पीछे दीवाना है, पागल है, बस उसे सिर्फ स्त्री दिखायी पड़ती है। यह आदमी कल संन्यस्त हो सकता है। तब यह स्त्री से बचने के लिए पागल हो जायेगा / तब कहीं कोई स्त्री छू न ले, कोई स्त्री पास न आ जाये, कहीं कोई स्त्री एकांत में न मिल जाये। तब यह भयभीत हो जायेगा, यह भागेगा, यह डरेगा। पहले भी भाग रहा था। पहले यह स्त्री की तरफ भाग रहा था, अब स्त्री की तरफ से भाग रहा है / लेकिन ध्यान स्त्री पर ही लगा हुआ है। पहले राग था, अब द्वेष है। पहले धन इकट्ठा कर रहा था, अब धन को देखता है तो आंख बंद कर लेता है। पहले धन को छूकर बड़ा मजा आता था। जैसे धन में भी प्राण हो / अब कोई धन को पास ले आये तो हाथ सिकोड लेता है कि कहीं छ न जाये, जैसे धन में अब भी प्राण है और धन इसको बिगाड़ सकता है। फर्क नहीं पड़ रहा है। ___ राग और द्वेष में फर्क नहीं है। द्वेष राग की ही उलटी तस्वीर है। जो भी राग करते हैं, किसी भी दिन द्वेष कर सकते हैं। जो भी द्वेष करते हैं, किसी भी दिन फिर राग कर सकते हैं। और राग, द्वेष घड़ी के पेंडुलम की तरह बदलते रहते हैं। सुबह द्वेष, सांझ राग; सांझ राग, सुबह द्वेष / आप अपने ही जीवन में अनुभव करेंगे तो पता चलेगा, प्रतिपल यह बदलाहट होती रहती है। यह बदलाहट, यह द्वंद्व हमारे विक्षिप्त मन का हिस्सा है। ___ महावीर कहते हैं, राग, द्वेष से मुक्ति, दोनों से एक साथ / न तो किसी चीज के प्रति आसक्ति और न किसी चीज के प्रति विरक्ति / यह बड़ी कठिन है क्योंकि हम तो विरक्त को संन्यासी कहते हैं; महावीर नहीं कहते / महावीर ने एक नया शब्द खोजा, उसे वे कहते हैं, 'वीतराग' / आसक्ति में बंधा हुआ आदमी और विरक्त, दोनों एक-जैसे हैं / वीतराग का अर्थ है : दोनों से पार / वीत—दोनों से पार चला गया, अब वहां दोनों नहीं हैं-आदमी सरल हो गया, सहज हो गया। - एक बड़ी अदभुत शर्त साथ में लगायी है कि जो राग, द्वेष और भय से रहित है। __ क्योंकि यह भी हो सकता है कि हम राग, द्वेष से रहित होने की कोशिश भय के कारण करें। हममें से बहुत-से लोग धार्मिक भय के कारण होते हैं, डर के कारण / डर नरक का, डर पाप का, डर अगले जन्म का, मृत्यु के बाद सताये तो नहीं जायेंगे? पता नहीं क्या होगा! ___ आदमी मृत्यु से उतना नहीं डरता, जितना दुख से डरता है। मेरे पास बूढ़े लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मृत्यु का हमें डर नहीं है, इतना ही आशीर्वाद दे दें कि सुख से मरें। कोई दुख न पकड़े, कोई बीमारी न पकड़े ; सड़े-गलें नहीं। मृत्यु का डर नहीं है, डर दुख का है। मृत्यु में क्या है, कोई फिक्र नहीं है। लेकिन कैंसर हो जाये, टी.बी. हो जाये, सडें-गलें, दुख पायें, उसका डर है। जैसे हैं, स्वस्थ मर जायें। मृत्यु से भी ज्यादा डर दुख का है। और पुरोहितों को पता चल गया है कि आदमी दुख से डरता है, इसलिये उन्होंने बड़े नरक का 352 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340044
Book TitleMahavir Vani Lecture 44 Rag Dwesh Bhay se Rahit hai Bramhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size77 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy