SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है, मेरा कोई प्रयोजन नहीं है-तटस्थ हो जायें। जब धीरे-धीरे आप रस लेना बंद कर देंगे, भाषा गिरने लगेगी, बीच में अंतराल आने लगेंगे, कभी-कभी मौन आकाश आ जायेगा। और मौन-आकाश इतना अदभुत अनुभव है कि जीवन की पहली झलक तभी मिलती है। दूसरे से बात करने के लिए भाषा, अपने से बात करने के लिए मौन / दूसरे से जुड़ने के लिए भाषा का सेतु चाहिए, और अपने से जटने के लिा भाषा का सेत खत्म हो जाना चाहिये। मौन की धारा पैदा हो जानी चाहिए। खुद से जुड़ने के लिए बोलने की क्या जरूरत है? लेकिन बोलना इतना रुग्ण हो गया है कि आप खुद को दो हिस्सों में तोड़ लेते हैं। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा था। वकीलों से परेशान आ गया था तो उसने अदालत से कहा कि 'मैं अपनी वकालत खुद ही करना चाहता हूं।' चोरी का मामला था, चोरी का इलजाम था; कानून में कोई बाधा नहीं थी। मजिस्ट्रेट ने कहा कि 'ठीक है, अगर तुम खुद ही कर सकते हो तो खुद ही करो।' तो मुल्ला खड़ा होता कटघरे में, कटघरे से बाहर निकलता, वकील की तरह खड़ा होता। एक काला कोट ले आया था, काला कोट पहनकर बाहर खड़े होकर कटघरे की तरफ देखता और पूछता—'नसरुद्दीन, तेरह तारीख की रात तुम कहां थे? क्या तुमने चोरी की? क्या तुम उस घर में घुसे?' फिर कोट उतारकर, भागकर कटघरे में जाकर खड़ा होता और कहता—'क्या मतलब, तेरह तारीख की रात? मुझे तो कुछ पता ही नहीं! किसकी चोरी हुई? क्या हुआ?'...वह जवाब-सवाल कर रहा है! ___ आप चौबीस घंटे यही कर रहे हैं। अपने को बांट लेते हैं ताकि बातचीत आसान हो जाये। बेटा अपनी तरफ से भी बोल रहा है, बाप की तरफ से भी बोल रहा है... जवाब भी दे रहा है! पत्नी अपनी तरफ से भी बोल रही है; पति क्या कहेगा, वह भी बोल रही है-जवाब-सवाल भीतर चल रहे हैं! भीतर आप खंड कर लिये हैं; खंड किये बिना बोलना बहुत मुश्किल हो जायेगा, पागलपन मालूम पड़ेगा। जरा भीतर देखें कि कैसा द्वंद्व आपने खड़ा कर लिया है। महावीर कहते हैं, मौन होगा तो द्वंद्व विसर्जित होगा। जब मौन होंगे तो आप एक हो जायेंगे। जब तक बोलेंगे, तब तक बटे रहेंगे। यह बंटाव हटना चाहिये। भाषा-समिति का अर्थ है : जब दूसरे से बोलना हो, तभी बोलना-पहली बात / जब दूसरे से न बोलना हो तो बोलना ही बंद कर देना, भीतर चुप हो जाना / दूसरी बात-दूसरे से भी बोलना हो, तो दूसरे के हित को ध्यान में रखकर बोलना, मुझे बोलना है, इसलिए मत बोलना / दूसरा फंस गया है, सुनेगा ही—इसलिए मत बोलना। तीसरी बात—जो मैं बोल रहा हूं वह सत्य ही है, ऐसा पक्का हो तो ही बोलना, अन्यथा मत बोलना। क्योंकि जो बोला जा रहा है, वह दूसरे में प्रवेश कर रहा है और दूसरे के जीवन को प्रभावित करेगा-अनंत जन्मों तक प्रभावित करेगा। इसलिए खतरनाक बात है। दूसरे के जीवन को गलत मार्ग दे देना, उसे भटका देना पाप है। - इसलिये महावीर कहते हैं : जो पूर्णनिश्चय से स्वयं का अनुभव हो, वही बोलना। दूसरे के हित में हो तो ही बोलना / क्योंकि पूर्ण अनुभव भी हो आपको सत्य का, परे को उसकी जरूरत ही न हो, अभी वह घड़ी न आई हो जब वह सत्य को सुन सके, अभी वह समय न आया हो जब वह सत्य को समझ सके, अभी उसके ऊपर यह बोझ हो जाये और उसके जीवन को बोझिल कर दे-तो मत बोलना। और उतने शब्दों में बोलना, जिसमें एक भी शब्द ज्यादा न हो-टेलिग्राफिक बोलना / जो काम पांच शब्दों में हो सके वह पांच में ही करना, पचास में मत करना। ___ अगर भाषा पर कोई व्यक्ति इतना होश साध ले, तो ध्यान अपने-आप घटित होना शुरू हो जाये / भाषा की विक्षिप्तता ध्यान में बाधा है। और अगर आप भाषा से पीछे हट सकें तो आप बच्चे की तरह सरल हो जायेंगे। जैसे आप जन्मे थे—बिना भाषा के, बिना शब्दों के थे लेकिन कोई भी आवरण न था विचार का-वैसे ही आप फिर हल्के, ताजे, और नये हो जायेंगे। ध्यानी पुनः बचपन को उपलब्ध हो जाता है, उसी निर्दोषता को। 302 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340042
Book TitleMahavir Vani Lecture 42 Panch Samitiya aur Tin Guptiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size82 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy