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________________ पांच समितियां और तीन गुप्तियां तीसरी समिति है—'एषणा।' महावीर कहते हैं, जब तक शरीर है तब तक शरीर को संभालने की जरूरत होगी-संभालने की! सजाने की जरूरत नहीं है! लेकिन संभालने की जरूरत होगी। भोजन चाहिये, देना पड़ेगा; पानी चाहिए, देना पड़ेगा। वस्त्र चाहिए, देने पड़ सकते हैं। कहीं छाया की जरूरत होगी। तो महावीर एषणा-समिति में कहते हैं कि जीवन को चलाने के लिए जो अत्यंत जरूरी हो उसका होशपूर्वक विचार करके, अत्यंत होश से उतना ही स्वीकार करना / ___ एषणा को, वासना को सीमित कर लेना अत्यंत आखिरी तल पर / अगर एक बार भोजन से जीवन पर्याप्त चल जाता हो, तो दो बार का भोजन व्यर्थ होगा, वासना हो जायेगी। अगर चार घंटे सोने से नींद पूरी हो जाती हो, शरीर ताजा हो जाता हो, जीवन चल जाता हो तो आठ घंटे की नींद भोग होगी; रोग पैदा करेगी। जितने से चल जाता हो, जीवन...! - इस फर्क को समझ लें, हम जीवन को चलाने के लिए नहीं जीते, जीवन को चलाने के लिये नहीं भोगते-बल्कि भोगने के लिए ही जीते हैं। कितना भोग लें, कितना ज्यादा भोग लें उसके लिये ही जीते हैं / जीवन का जैसे लक्ष्य ही एक है कि इंद्रियों को कितना भर लें। महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति अपने ही हाथों अपनी ही वासनाओं में डूबकर नष्ट हो जाता है, अपनी ही दौड़-धूप में नष्ट हो जाता है। ऐसा नहीं कि उसे कोई सुख भी मिल पाता हो, कोई सुख नहीं मिल पाता / स्वस्थ भी नहीं हो पाता, सुख होना तो बहुत दूर है। जितना इन वासनाओं की दौड़ बढ़ती है, उतना टूटता जाता है, उतना बोझ से भरता जाता है। यह बड़े मजे की बात है कि गरीब आदमी को तो शायद भोजन में रस भी आता हो; अमीर आदमी को भोजन में कछ रस नहीं आता. सिर्फ और नई बीमारियों के दर्शन होते हैं। चिकित्सक कहते हैं कि दुनिया में भूख से कम लोग मरते हैं, भोजन से ज्यादा लोग मरते हैं। पचास प्रतिशत बीमारी तो ज्यादा भोजन से ही पैदा होती है। जितना आप खाते हैं, उस से आधे से आपका पेट भरता है, आधे से आपके डाक्टर का पेट भरता है। इससे कोई सुख तो उपलब्ध नहीं होता, स्वास्थ्य भी खो जाता है। ___ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक गांव की सबसे गरीब गली में दर्जी का काम करता था। इतना कमा पाता था मुश्किल से कि रोटी-रोजी का काम चल जाये, बच्चे पल जायें। मगर एक व्यसन था उसे कि हर रविवार को एक रुपया जरूर सात दिन में बचा लेता था लाटरी का टिकट खरीदने के लिये। ऐसा बारह साल तक करता रहा, न कभी लाटरी मिली, न कभी उसने सोचा कि मिलेगी / बस, यह एक आदत हो गई थी कि हर रविवार को जाकर लाटरी की एक टिकट खरीद लेनी है। लेकिन एक रात आठ-नौ बजे, जब वह अपने काम में व्यस्त था, काट रहा था कपड़े कि दरवाजे पर एक कार आकर रुकी। उस गली में तो कार कभी आती भी नहीं थी; बड़ी गाड़ी थी। कोई उतरा... दो बड़े सम्मानित व्यक्तियों ने दरवाजे पर दस्तक दी। नसरुद्दीन ने दरवाजा खोला; उन्होंने पीठ ठोंकी नसरुद्दीन की और कहा कि 'तुम सौभाग्यशाली हो, लाटरी मिल गई, दस लाख रुपये की!' / नसरुद्दीन तो होश ही खो बैठा! कैंची वहीं फेंकी, कपड़ों को लात मारी! बाहर निकला, दरवाजे पर ताला लगाकर चाबी कुएं में फेंकी! सालभर उस गांव में ऐसी कोई वेश्या न थी जो नसरुद्दीन के भवन में न आई हो; ऐसी कोई शराब न थी जो उसने न पी हो; ऐसा कोई दुष्कर्म न था जो उसने न किया हो / सालभर में दस लाख रुपये उसने बर्बाद कर दिए। और साथ ही, जिसका उसे कभी खयाल ही नहीं था, जो जिंदगी से उसके साथ था स्वास्थ्य-वह भी बर्बाद कर दिया। क्योंकि रात सोने का मौका ही न मिले-रातभर नाच-गान, शराब / सालभर बाद जब पैसा हाथ में न रहा, तब उसे खयाल आया कि मैं भी कैसे नरक में जी रहा था। . वापस लौटा; कुएं में उतरकर अपनी चाबी खोजी / दरवाजा खोला; दुकान फिर शुरू कर दी। लेकिन पुरानी आदतवश वह रविवार 303 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340042
Book TitleMahavir Vani Lecture 42 Panch Samitiya aur Tin Guptiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size82 MB
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