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________________ पांच समितियां और तीन गुप्तियां जायेगा। बहुत मुश्किल है धार्मिक आदमी पाना, जो चिड़चिड़ा न हो / जब धार्मिक आदमी चिड़चिड़ा न हो तो समझना कि ठीक धार्मिक आदमी है। लेकिन धार्मिक आदमी चिडचिडा होगा, सौ में निन्यानबे मौके पर; क्योंकि जो उसने रोका है, वह कहीं से निकलेगा। वह चिड़चिड़ाहट बन जायेगा उपद्रव ! आप अहिंसा को थोप सकते हैं, फिर हिंसा नई तरफ से बहने लगेगी। यह जानकर आप चकित होंगे कि पूरा जीवन एक इकानामिक्स है, शक्ति का एक अर्थशास्त्र है। आप इस अर्थशास्त्र को सीधा नहीं बदल सकते, जब तक कि भीतर का मालिक न बदल जाये तब तक एक तरफ से झरने को रोकते हैं, दूसरी तरफ से बहना शुरू हो जाता महावीर का जोर कृत्य पर नहीं है, कर्ता पर है। आप क्या करते हैं, यह बात बहत विचारणीय नहीं है। आप होशपूर्वक करें, बस इतना ही विचारणीय है। और मजे की बात यह है कि होशपूर्वक करने पर जो बुरा है, वह होता ही नहीं; क्योंकि बुरे की अनिवार्य शर्त है, बेहोशी। यह गणित है। होशपूर्वक करने पर वही होता है, जो शुभ है, जो ठीक है; क्योंकि होश से गैर-ठीक निकलता ही नहीं / इसलिए महावीर ने 'ईया' पहली समिति कही-होशपूर्वक प्रवृत्ति / ___ 'भाषा'-होशपूर्वक भाषा का व्यवहार, संयमपूर्वक भाषा का व्यवहार / यह संयम उस सीमा तक जाना चाहिए, जहां भाषा मौन हो जाये। 'ईर्या' जागरूकता बन जाये, इतना होश हो जाये कि उसका होश न रखना पड़े—कि उसकी अलग से चेष्टा न करनी पड़े कि होश रखू / होश सहज हो जाये तो 'ईर्या' पूरी हुई। भाषा की पूर्णता या भाषा का बोध और भाषा की समिति तब पूरी होती है, जब मौन सहज हो जाये। भाषा का उपयोग तभी हो जब अत्यंत जरूरी संवाद हो, आवश्यक हो कि बोलना जरुरी है। और जब बोलें तब भाषा का उपयोग हो, जब न बोलें तब भीतर भाषा न चलती रहे। अभी आप नहीं भी बोलते तो भी भीतर भाषा चलती रहती है; भीतर तो आप ते ही रहते हैं। बाहर कभी-कभी चप रहते हैं, भीतर तो कभी चप नहीं रहते / सपने तक में चर्चा चलती रहती है। यह जो भीतर चलनेवाली भाषा है, यह जीवन की ऊर्जा को पिये जा रही है, सोखे जा रही है। आपका मस्तिष्क विक्षिप्त है—ऐसा ही, जैसे कि आप बैठे हैं और पैर चला रहे हैं। कुछ लोग बैठकर चलाते रहते हैं। चलते वक्त पैर का चलाना ठीक है, क्योंकि पैर के चलने की जरूरत है। लेकिन कुर्सी पर बैठकर पैर क्यों हिला रहे हैं? अनावश्यक है। लेकिन आमतौर से अगर कोई कहेगा कि व्यर्थ है तो आपको खयाल में आ जायेगा। जब आप बोल रहे हैं तब भाषा की जरूरत है, जब आप चुप बैठे हैं तब भीतर भाषा क्यों चल रही है? पैर का हिलना क्यों चल रहा है? __ महावीर भी बारह वर्ष तक निरंतर मौन में डूबे रहे, सिर्फ भाषा-समिति को उपलब्ध होने को---कि मालिक हो जायें शब्द के, शब्द मालिक न रहे। अभी शब्द आपका मालिक है। आप चाहें भी कि भाषा को बंद करें, वह नहीं होती, वह चलती ही जाती है। आप कहें भी अपने मन से कि चुप हो जा, वह आपकी सुनता नहीं। आप कितना ही कसते रहें, पर वह बोले ही चला जाता है। अंततः आप थक जाते हैं, और कहते हैं कि 'ठीक है, चलने दो।' धीरे-धीरे आप भूल ही जाते हैं कि आप गुलाम हो गये हैं, और मन मालिक हो गया है। मन की मालकियत तोड़ने का उपाय मौन है, और कोई उपाय नहीं है। मन की मालकियत तोडने का एक ही ढंग है कि आप भीतर चलते शब्दों से अपना सहयोग हटा लें,को-आपरेशन अलग कर लें। भीतर शब्द चलता भी हो तो भी आप उसमें रस न लें। भीतर शब्द चलता भी हो तो आप ऐसा ही समझें कि कहीं और दूर चल रहा 301 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340042
Book TitleMahavir Vani Lecture 42 Panch Samitiya aur Tin Guptiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size82 MB
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