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________________ छह लेश्याएं : चेतना में उठी लहरें फिर तीन लेश्याएं हैं : 'तेज', 'पदम' और 'शुक्ल', तेज का अर्थ है, अग्नि की तरह सुर्ख लाल / जैसे ही व्यक्ति तेज-लेश्या में प्रवेश करता है, वैसे ही प्रेम गहन प्रगाढ़ हो जाता है। अब यह प्रेम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करने के लिए नहीं है। अब यह प्रेम लेना नहीं है, अब यह प्रेम सिर्फ देना है, यह सिर्फ दान है। और इस व्यक्ति का जीवन प्रेम के इर्द-गिर्द निर्मित होता है। __यह जो लाल रंग है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिये, क्योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर संन्यासी रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिंदुओं ने लाल को, गैरिक को संन्यासी का रंग चुना; क्योंकि धर्म के पथ पर वह पहला रंग है। हिंदुओं ने साधु के लिए गैरिक रंग चुना है, क्योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभा-मंडल लाल होगा, उसके वस्त्र भी उसमें तालमेल बन जाएं, एक हो जायें। तो शरीर और उसकी आत्मा में, उसके वस्त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्य, एक संगीत पैदा हो जाये। ____ हिंदुओं ने गैरिक को, लाल को संन्यासी का रंग चुना, क्योंकि वहां से मंजिल शुरू होती है। जैनों ने 'शुभ्र' को, सफेद को संन्यासी का रंग चुना, क्योंकि वहां मंजिल अंत होती है, वहां मंजिल पूरी होती है। __दोनों सही और गलत हो सकते हैं, हिंदू कह सकते हैं कि जो अभी हुआ नहीं, उस रंग को चुनना ठीक नहीं, प्रथम को ही चुनना ठीक है; क्योंकि साधक अभी यात्रा शुरू कर रहा है, अभी मंजिल मिली नहीं। और जैन कह सकते हैं कि मंजिल को ही ध्यान में रखना उचित है। जो आज है वह मूल्यवान नहीं है, जो वस्तुतः कल होगा; अन्त में, वही मूल्यवान है। उसी पर नजर होनी चाहिये। दोनों सही हो सकते हैं, दोनों गलत हो सकते हैं। लेकिन दोनों मूल्यवान हैं। हिंदुओं ने लाल रंग चुना है संन्यासियों के लिये / जैनों ने सफेद रंग चुना है। बौद्धों ने पीला रंग चुना है—दोनों के बीच / बुद्ध हमेशा मध्य-मार्ग के पक्षपाती थे, हर चीज में। __ ये तीन धर्म के रंग हैं-तेज, पदम, शुक्ल / 'तेज' हिंदुओं ने चुना है, 'शुक्ल' जैनों ने चुना है। ‘पदम'-पीला, पीत-वस्त्र बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के लिए चुने हैं; क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि जो है वह मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे छोड़ना है, और जो अभी हुआ नहीं वह भी बहुत मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे अभी होना है-दोनों के बीच में साधक है। लाल यात्रा का प्रथम चरण है, शुभ्र यात्रा का अंतिम चरण है-पूरी यात्रा तो पीत की है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पीला रंग चुना है। तीनों चुनाव अपने आप में मूल्यवान हैं; कीमती, बहुमूल्य हैं। यह जो लाल रंग है, यह आपके आस-पास तभी प्रगट होना शुरू होता है, जब आपके जीवन से स्वार्थ बिलकुल शून्य हो जाता है, अहंकार बिलकुल टूट जाता है / यह लाल आपके अहंकार को जला देता है। यह अग्नि आपके अहंकार को बिलकुल जला देती है। जिस दिन आप ऐसे जीने लगते हैं जैसे 'मैं नहीं हूं', उस दिन धर्म की तरंगें उठनी शुरू हो जाती हैं। जितना आपको लगता है कि 'मैं हूं', उतनी ही अधर्म की तरंगें उठती हैं। क्योंकि 'मैं' का भाव ही दूसरे को हानि पहुंचाने का भाव है। मैं हो ही तभी सकता हूं, जब मैं आपको दबाऊं / जितना आपको दबाऊं, उतना ज्यादा मेरा 'मैं' मजबूत होता है। सारी दुनिया को दबा दूं पैरों के नीचे, तभी मुझे लगेगा कि 'मैं हूं।' ___ अहंकार दूसरे का विनाश है। धर्म शुरू होता है वहां से, जहां से हम अहंकार को छोड़ते हैं। जहां से मैं कहता हूं कि अब मेरे अहंकार की अभीप्सा, वह जो अहंकार की महत्वाकांक्षा थी, वह मैं छोड़ता हूं। प्रतिस्पर्धा छोड़ता हूं, संघर्ष छोड़ता हूं, दूसरे को हराना, दूसरे को मिटाना, दूसरे को दबाने का भाव छोड़ता हूं / अब मेरे प्रथम होने की दौड़ बंद होती है। अब मैं अंतिम भी खड़ा हूं, तो भी प्रसन्न हूं। संन्यासी का अर्थ ही यही है कि जो अंतिम खड़े होने को राजी हो गया। जीसस ने कहा है, मेरे प्रभु के राज्य में वे प्रथम होंगे, जो यहां 285 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340041
Book TitleMahavir Vani Lecture 41 Chah Leshyaye Chetna me Uthi Lahre
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size78 MB
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