________________ विकास की ओर गति है धर्म वह यह कि आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं, कोई चिंता नहीं। आप निश्चिंत हैं। उसकी जो मर्जी / उसकी बिना मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता। महावीर परमात्मा की जगह आकाश की धारणा को स्थापित करते हैं। और वे कहते हैं, पत्ता अपनी ही मर्जी से हिलता है, और किसी की मर्जी से नहीं / आकाश की अपनी कोई मर्जी नहीं है आपको हिलाने-डुलाने की / आकाश सिर्फ अवकाश देता है। पत्ता हिलना चाहता है, तो अवकाश देता है, पत्ता ठहरना चाहता है, तो ठहरने के लिए सुविधा देता है। निरपेक्ष अस्तित्व है चारों ओर / यह अस्तित्व आपको न तो खींच रहा है, और न आपको धक्के दे रहा है। आप जो भी कर रहे हैं, आपके अतिरिक्त और कोई भी जिम्मेवार नहीं है। आप परम स्वतंत्र हैं / लेकिन तब चिंता पैदा हो जाती है। क्योंकि तब उसका अर्थ हुआ तत हो रहा है, तो में जिम्मेवार हूं, उसका अर्थ हुआ अगर मैं दुख पा रहा हूं तो मैं जिम्मेवार हूं। कोई ऊपर परमात्मा नहीं है। इसलिए बहुत बड़ी संख्या में महावीर के अनुयायी नहीं बन सके; क्योंकि लोग चिंता छोड़ना चाहते हैं, चिंता पकड़ना नहीं चाहते। गुरु के पास लोग आते हैं कि मेरा बोझ आप ले लो। और ये महावीर खतरनाक आदमी हैं, ये सारे संसार का बोझ आप पर रखे दे रहे हैं। गुरु के पास आप जाते हैं, उसके चरणों में सिर रखते हैं कि सम्हालो! बस, अब आप ही हो। आपकी जो मर्जी, वैसा ही-कि आप एक आकाश में बैठे परमात्मा को समर्पण करते हैं। समर्पण क्या करेंगे? आपके पास है क्या समर्पण करने को, सिवाय दुख और उपद्रव के? जब आप कहते हैं कि आपकी ही मर्जी, तो आप छोड़ क्या रहे हो? बीमारियां, उपाधियां, उपद्रव, पागलपन! लेकिन एक लाभ है। हो परमात्मा या न हो, जब आप अनुभव करते हैं कि किसी पर छोड़ा, तो आप निश्चिंत हो पाते हैं। महावीर की प्रक्रिया बिलकुल उलटी है। महावीर कहते हैं कि धार्मिक व्यक्ति अति चिंता से भर जायेगा / इसे समझ लें, क्योंकि बिलकुल विपरीत है। समर्पण नहीं है महावीर की धारणा में--संकल्प है। महावीर कहते हैं, कि धार्मिक व्यक्ति ही चिंतित होगा, अधार्मिक व्यक्ति चिंतित होता ही नहीं। और यह बात सच है। धार्मिक चिंता से बड़ी चिंता और नहीं हो सकती; क्योंकि धार्मिक चिंता का अर्थ है कि मैं जो भी हूं, मैं जिम्मेवार हूं। और कल मैं जो भी होऊंगा, मैं ही जिम्मेवार होऊंगा / इसलिए एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखना है; और किसी दूसरे पर दायित्व नहीं डाला जा सकता; और किसी के कंधों पर बोझ नहीं रखा जा सकता ; और दोष दूसरों को नहीं दिये जा सकते। सब दोष मेरे हैं। ___ खतरा है। भारी चिंता का बोझ सिर पर हो जायेगा / अकेला हो जाऊंगा मैं, कोई सहारा नहीं / इसलिए महावीर कहते हैं, असहाय है, असहाय है आदमी / हिंदू भी कहते हैं, आदमी असहाय है / लेकिन हिंदू कहते हैं, आदमी असहाय है, इसलिए परमात्मा का सहारा खोजो। महावीर कहते हैं, आदमी असहाय है और कोई सहारा है नहीं, इसलिए अपने ही सहारे खड़े होने की चेष्टा करो। निश्चित ही महाचिंता घेरेगी सिर पर / पर ध्यान रहे, इस चिंता झेलने को जो राजी है, उसके आनंद का मुकाबला कोई भी नहीं कर सकता। क्योंकि इसी चिंता से विकास है। इसी चिंता और संघर्ष से निखार है। इसी चिंता से फौलाद जन्मेगा, इसी आग से / कोई सहारा नहीं / इस असहाय अवस्था में ही खड़े रहने की हिम्मत साहस है जो आत्मा का जन्म बनेगी और एक ऐसी घड़ी आयेगी कि जब किसी सहारे की कोई जरूरत भी नहीं रह जायेगी, आकांक्षा भी नहीं रह जायेगी। आदमी अपने ही पैरों पर पूरी तरह खड़ा हो जायेगा। ___ महावीर कहते हैं, जब भी कोई आत्मा अपनी अवस्था में पूरी तरह खड़ी हो जाती है, जब बाहर के सहारे की कोई जरूरत नहीं होती, तब सिद्ध की अवस्था है। जब तक बाहर का सहारा चाहिये, तब तक संसार है / इसलिए महावीर की धारणा में भक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है। मगर जैन बड़े अदभुत लोग हैं / वे महावीर के सामने हाथ जोड़े खड़े हैं। वे उन्हीं की पूजा-प्रार्थना कर रहे हैं। जबकि महावीर 195 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org