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________________ यह निःश्रेयस का मार्ग है समझौता नहीं है मार्ग धर्म में, दर्शन में भला हो, विचार में भला हो / जिनको चलना है उनके लिए समझौता मार्ग नहीं है, उनके लिए तो स्पष्ट चुनाव / और वह चुनाव करना अपनी आंतरिक भाव-दशा के अवलोकन से, दूसरे की बातों से नहीं / अपने को सोचना कि मैं क्या कर सकता हूं, समर्पण या संकल्प / ___ एक मित्र ने पूछा है कि मैं तो हूं बहुत पापी / आकांक्षा होती है प्रभु तक पहुंचने की; क्या मुझ जैसे पापी के लिए प्रभु का द्वार खुला होगा? मैं बहना ही चाहूं, बहता ही रहूं, तो भी क्या परमात्मा के सागर को पा सकूँगा? यह महत्वपूर्ण है भाव, क्योंकि जो जान लेता है कि मैं पापी हं, उसके जीवन में पुण्य का प्रारंभ हो जाता है। यह एक पण्डित का प्रश्न नहीं है, एक धार्मिक व्यक्ति का प्रश्न है। पण्डित ज्ञान की बातों में से प्रश्न उठाता है, धार्मिक व्यक्ति अपनी अंतर्दशा में से प्रश्न उठाता है। पण्डित के प्रश्न शास्त्रों से आते हैं, धार्मिक व्यक्ति के प्रश्न अपनी स्थिति से आते हैं। __ यह भाव, कि मैं पापी हूं, धार्मिक भाव है। यह जानना कि मेरा पहुंचना मुश्किल है, पहुंचने के लिए पहला कदम है। यह मानना कि क्या मेरे लिए भी प्रभु के द्वार खुले होंगे, द्वार पर पहली दस्तक है। __ वे ही पहुंच पाते हैं जो इतने विनम्र हैं / जो बहुत अकड़ से चलते हैं, जो सोचते हैं कि दरवाजे का क्या सवाल, परमात्मा बीच में स्वागत के लिए खड़ा होगा वंदनवार बनाकर, वे कभी नहीं पहुंच पाते / क्योंकि उस परम सत्ता में लीन होना है। लीनता यहीं से शुरू होगी, आपकी तरफ से शुरू होगी। परम सत्ता के कोई द्वार नहीं हैं कि बंद हों। समझ लें। उसके कोई दरवाजे नहीं हैं, उसके महल के, कि बंद हों / परम सत्ता खुलापन है। परम सत्ता का अर्थ है, खुला हुआ होना / खुली ही हुई है परम सत्ता / सवाल उसकी तरफ से नहीं है कि वह आपको रोके, बुलाये, खींचे / सवाल सब आपकी तरफ से है कि अब आप भी उस खुलेपन में उतरने को तैयार हैं? आप कहीं बंद तो नहीं हैं? परमात्मा बंद नहीं है। बंद आप तो नहीं हैं? सूरज निकला है और मैं अपने द्वार दरवाजे बंद करके घर में आंख बंद किये बैठा हूं और सोच रहा हूं कि अगर मैं द्वार के बाहर जाऊं तो सूरज से मेरा मिलन होगा? मैं आंख खोलूं तो सूरज मुझ पर कृपा करेगा? __सूरज की कृपा बरस ही रही है। अकृपा कभी होती ही नहीं / वह सदा मौजूद ही है द्वार पर, आप द्वार खोलें। और द्वार आपने बंद किये हैं, उसने बंद नहीं किये हैं। आंख आपकी है, आप आंख खोलें। आंख आपने बंद की है। परमात्मा है सदा खुला हुआ, हम हैं बंद / और हमारे बंद होने में सबसे बड़ा कारण क्या है? सबसे बड़ा कारण यह है हम यह मानकर चलते हैं कि हम तो खुले हुए हैं। अंधे को अगर यह खयाल हो कि मेरी आंखें तो खुली हुई हैं, तब बहुत अड़चन हो जाती है। हम सब मानते हैं, हम तो खुले ही हुए हैं। हम खुले हुए नहीं हैं, हम बिलकुल बंद हैं। और अगर परमात्मा हमारे द्वार पर भी आ जाये तो शायद ही सम्भावना है कि हम उसे भीतर आने दें। बहुत मुश्किल है कि हम उसके लिए दरवाजा खोलें, क्योंकि वह इतना अजनबी होगा, हमने उसे कभी देखा नहीं / उससे ज्यादा अजनबी कोई भी न होगा। __हम पहले पूछेगे, कहां के रहनेवाले हो? हिंदू हो कि मुसलमान कि जैन? कोई केरेक्टर सर्टिफिकेट साथ लाये हो? परमात्मा तो इतना स्टेंजर होगा, अगर हमारे द्वार पर आ जाये, अगर परम सत्य हमारे पास आ जाये तो हम भाग खडे होंगे। क्योंकि हम उसे बिलकल न पहचान पायेंगे / हम पहचानते उसे हैं जिसे हम पहले से जानते हैं / जिसे हमने कभी जाना नहीं, हम उसे पहचानेंगे कैसे! हम उससे ऐसे सवाल पूछेगे, हम उसकी इन्क्वायरी करेंगे। हम जाकर पुलिस दफ्तर में पूछताछ करेंगे कि यह आदमी कैसा है? घर में ठहरना चाहता 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340034
Book TitleMahavir Vani Lecture 34 Yah Nishreyas ka Marg Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size85 MB
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