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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है। और हम द्वार बंद कर लेंगे। ___ अजनबियों के लिए हमारे द्वार खुले हुए नहीं हैं / और परमात्मा से ज्यादा अजनबी कौन होगा? और हमारी नीति, हमारे चरित्र के नियम सब छोटे पड़ जायेंगे। उनसे हम उसे नाप न पायेंगे / बड़ी अड़चन होगी / हमने बहुत बार यह किया है। __ हम, महावीर मौजूद हों, तो नाप नहीं पाते / बुद्ध मौजूद हों तो नाप नहीं पाते / जीसस मौजूद हों, तो नाप नहीं पाते / हम ऐसे बेहूदे सवाल पूछते हैं बुद्ध से, महावीर से, जीसस से, वह असल में हम अजनबीपन के कारण पूछते हैं। जीसस एक वेश्या के घर में ठहर गये। आपने क्या पूछा होता सुबह? जीसस को घेरकर आप क्या सवाल उठाते? __ हम वही सवाल उठा सकते हैं, जो हम वेश्या के घर ठहरे होते तो जो हमने किया होता, वही सवाल हम उठायेंगे। हम यह सोच ही नहीं सकते कि जीसस के होने का कोई और अर्थ हो सकता है। जीसस को कोई बद्ध समझ सकता था। बुद्ध का एक शिष्य एक वेश्या के घर ठहर गया। सारे भिक्षु परेशान हो गये और उन्होंने आकर बुद्ध को शिकायत की कि यह तो बहत अशोभन बात है कि हमारा एक भिक्ष और वेश्या के घर ठहर जाये! ये जो भिक्षु थे, ये ठहरना चाहते होंगे वेश्या के घर / यह ईर्ष्या से उठा हुआ सवाल था / बुद्ध ने कहा कि अगर तुम ठहर जाते तो चिंता होती। जो ठहर गया उसे मैं जानता है। लेकिन शिष्यों ने कहा कि आप यह अन्याय कर रहे हैं। इससे तो रास्ता खुल जायेगा। इससे तो और लोग भी ठहरने लगेंगे। और लोग --मतलब वे अपने को सोच रहे हैं कि क्या गुजरेगी उन पर अगर वे वेश्या के घर ठहर जायें / हम हमेशा अपने से सोचते हैं। और तो कोई उपाय भी नहीं है, हम अपने से ही सोचते हैं। और वेश्या सुंदरी है, उन भिक्षुओं ने कहा, बहुत सुंदरी है / और उसके आकर्षण से बचना बहुत मुश्किल है / रातभर भिक्षु वहीं ठहर गया। और हमने तो यह भी सुना है कि रात, आधी रात तक गीत भी चलता रहा. नाच भी चलता रहा. यह क्या हो रहा बुद्ध ने कहा, मैं उस भिक्षु को भलीभांति जानता हूं / और अगर मेरा भिक्षु वेश्या के घर ठहरता है, तो मेरा भिक्षु वेश्या को बदलेगा, न कि वेश्या मेरे भिक्षु को। और अगर मेरे भिक्षु को वेश्या बदल लेती है तो वह भिक्षु इस योग्य ही न था कि अपने को भिक्षु कहे / वह ठीक ही हुआ। इसमें बिगड़ा क्या? जो बदला जा सकता था वही बदला जायेगा। और सुबह ऐसा हुआ कि भिक्षु वापस आया और पीछे उसके वेश्या आयी। और बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, इस वेश्या को देखो। उस वेश्या ने कहा कि मैं आपके चरणों में आना चाहती हूं, क्योंकि पहली दफे मुझे एक पुरुष मिला, जिसको मैं डांवाडोल न कर सकी। अब मेरे मन में भी यह भाव उठा कि कब ऐसा क्षण मुझे भी आयेगा कि कोई मुझे डांवाडोल न कर सके / जो इस भिक्षु के भीतर घटा है, वही मेरे भीतर भी घट जाये, अब इसके सिवाय और कोई आकांक्षा नहीं है। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि तुम देखो। लेकिन कठिन है। हम जो हैं, वही हम सोच पाते हैं। इसलिए बुद्ध हों, महावीर हों, हम अपनी तरफ से सोचते हैं। हम अपने ढंग से सोचते हैं। कोई उपाय भी नहीं है। हमारी भी मजबूरी है। हम वही ढंग जानते हैं, हम वही दृष्टि जानते हैं, हम अपनी आंख से ही तो देखेंगे! किसी और की आंख से कैसे देख सकते हैं? परमात्मा अगर आपके द्वार पर भी आ जाये तो आप नहीं पहचानेंगे, यह पक्का है / और आप उसको ठहरने भी नहीं देंगे, यह पक्का है। नहीं, लेकिन परमात्मा आपके द्वार पर आता भी नहीं। वह सदा खुला हुआ आकाश है चारों तरफ। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है / परमात्मा है खुला हुआ आकाश / परमात्मा है स्पेस, चारों तरफ / आप कूद जायें, वह आकाश आपको लीन करने में सदा तत्पर है। आप खड़े रहें, तो वह आकाश आपको खींचकर जबर्दस्ती लीन नहीं करना चाहता है। क्योंकि उतनी हिंसा 126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340034
Book TitleMahavir Vani Lecture 34 Yah Nishreyas ka Marg Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size85 MB
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