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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जायेगा / वह जो दब्बू मालूम पड़ रही थी, वह धीरे-धीरे शेर होने लगेगी। हालांकि उसके शेर होने के ढंग में भी दब्बूपन होगा। जैसे, अगर दब्बू स्त्री आपको सताना चाहे तो रोयेगी, चिल्लायेगी नहीं, क्रोध नहीं करेगी; लेकिन रोना भी जानखाऊ हो जाता है। और कभी-कभी तो क्रोधी स्त्री कम जानखाऊ मालूम पड़ेगी, निपट जायेगी। रोनेवाली स्त्री ज्यादा कुशलता से सताती है। आप यह भी नहीं कह सकते कि वह गलत है, क्योंकि रोनेवाले को क्या गलत कहो। वह आपको दोहरी तरह से मारती है। नैतिक रूप से भी आपको लगता है कि आप गलती कर रहे हैं। वह आपको अपराधी सिद्ध कर देगी। लेकिन तब, तब लगेगा कि फिर वही चुन लाये। दुबारा फिर चुनने जायेंगे, फिर आपकी पसन्द, आपका जो मन है वह भीतर बैठा है। वह फिर दब्बू स्त्री पसन्द करता है। अब की दफा वह और भी ज्यादा दब्बू खोजेगा, क्योंकि पहली दफा भूल हो गयी, उतनी दब्बू साबित नहीं हुई। ध्यान रखना, और बड़ी दब्बू खोजेंगे तो और बड़ी उपद्रवी स्त्री मिल जायेगी। मगर यह चलेगा। क्योंकि हम जो मूल कारण है, उसे नहीं देखते, बाहर के निमित्त देखते हैं। और बाहर के निमित्त काम नहीं पड़ते। ___ महावीर कहते हैं, 'अपने ही कृतकर्मों के कारण हम दुखी होते हैं।' अब अगर मैं दब्बू स्त्री पसन्द करता हूं तो यह मेरे लम्बे कर्मों, विचारों, भावों का जोड़ है। लेकिन मैं पसन्द क्यों करता हूं दब्बू स्त्री? मैं किसी को दबाना पसन्द करता हूं, इसलिए जब कोई मुझसे नहीं दबेगा तो मैं दुखी हो जाऊंगा। असल में दबाना पसन्द करना ही पाप है। किसी को दबाना पसन्द करना ही हिंसा है। यह मैं गलत कर रहा हूं कि मैं किसी को दबाया हुआ पसन्द करूं / स्वभावतः मैं भी दबाना चाहता हूं, दूसरे भी दबाना चाहते हैं। फिर कलह होगी, फिर दुख होगा और दुख मैं दूसरे पर थोपने चला जाऊंगा। 'अच्छा या बरा जैसा भी कर्म हो, उसके फल को भोगे बिना छटकारा नहीं है।' कैसा भी कर्म हो, कर्म का फल होकर ही रहता है। उसका कोई उपाय ही नहीं। उसका कारण? क्योंकि कर्म और फल दो चीजें नहीं हैं, नहीं तो बचना हो सकता है / कर्म और फल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं एक रुपये को उठाकर मुट्ठी में रख लूं और मैं कहूं कि मैं तो सिर्फ सीधे पहलू को ही मुट्ठी में रखूगा, और वह जो उल्टा हिस्सा है वह मुट्ठी में नहीं रखूगा, तो मैं पागल हूं। क्योंकि सिक्के में दो पहलू हैं। और कितना ही बारीक सिक्का बनाया जाये, कितना ही पतला सिक्का बनाया जाये, दूसरा पहलू रहेगा ही। कोई उपाय नहीं है एक पहलू के सिक्के को बनाने का / कोई उपाय नहीं है कर्म को फल से अलग करने का। कर्म और फल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्म एक बाजू, फल दूसरी बाजू छिपा है, पीछे ही खड़ा है। हम सब इसी कोशिश में लगे हैं कि फल से बच जायें। और कभी-कभी जिन्दगी की व्यवस्था में हम बचते हुए मालूम पड़ते हैं। ___ एक आदमी चोरी कर लेता है, अदालत से बच जाता है तो वह सोचता है कि वह फल से बच गया। वह फल से नहीं बचा, समाज के दण्ड से बच गया। फल से नहीं बचा। फल तो आत्मिक घटना है। अदालतों से उसका कोई लेना-देना नहीं है। कानून से उसका कोई संबंध नहीं है / फल से कोई नहीं बच सकता / सामाजिक व्यवस्था से बच सकता है, छूट सकता है। लेकिन बचने और छूटने का जो कर्म कर रहा है, उसके फल से भी नहीं बच सकता / भीतर तो बचाव का कोई उपाय ही नहीं है। मैंने किया क्रोध और मैंने भोगा फल, मैंने किया मोह और मैंने भोगा फल / मैंने किया ध्यान और मैंने भोगा फल / उससे बचने का कोई उपाय ही नहीं है। नहीं है उपाय इसलिए कि कर्म और फल दो चीजें नहीं हैं। नहीं तो हम एक को अलग कर सकते हैं, दूसरे को अलग कर सकते हैं। वे पहलू हैं। इस संबंध में एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। कुछ लोग सोचते हैं कि मैंने एक बुरा कर्म किया। फिर एक अच्छा कर्म कर दिया तो बुरे को काट देगा / वे गलत सोचते हैं। कोई अच्छा कर्म किसी बरे कर्म को नहीं काट सकता है। इसलिए महावीर 112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340033
Book TitleMahavir Vani Lecture 33 Akele hi hai Bhogna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size74 MB
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