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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 तो आप आदमी नहीं होते। असल में क्रोध के क्षण में आप तत्काल अपने पशु मन से जुड़ जाते हैं और पशु मन प्रगट होने लगता है। ___ इसलिए अकसर क्रोध में आप कुछ कर लेते हैं और पीछे कहते हैं, मेरे बावजूद, इन्सपाइट आफ मी-मैं तो नहीं करना चाहता था, फिर भी हो गया। फिर किसने किया, आप नहीं करना चाहते थे तो! कभी आपने अपनी क्रोध की तस्वीर देखी है? कभी आईने के सामने खड़े होकर क्रोध करना, तब आप पायेंगे, यह चेहरा आपका नहीं है / ये आंखें आपकी नहीं हैं। यह कोई और आपके भीतर आ गया। वह कौन है? यह आपका ही कोई पशु-संस्मरण है, कोई स्मृति है, कोई संस्कार; जब आप पशु थे, वह आपके भीतर काम कर रहा है। उसने आपको पकड़ लिया। जब आप अपने को ढीला छोड़ते हैं, तब आपके नीचे का मन आपको पकड़ लेता है। कई बार कई आदमियों की आंखों में देखकर आपको लगेगा कि वह पथरा गयी हैं। लोग कहते हैं, उसकी आंखें पथरा गयी हैं। जब हम कहते हैं, किसी की आंखें पत्थर हो गयीं, तो उसका क्या मतलब होता है? उसका मतलब है कि इस व्यक्ति के पत्थर जीवन के अनुभव इसकी आंखों को पकड़ रहे हैं आज भी / इसलिए इसकी आंखों में कोई संवेदना नहीं मालूम होती। अनेक लोग बिलकुल मुर्दा मालूम पड़ते हैं / उनका शरीर लगता है, जैसे लाश है / वे चलते हैं तो ऐसा जैसे कि ढो रहे हैं अपने को। क्या हो गया है इनको? __ मन की बहुत पर्ते हैं। इस पर्त-पर्त मन का जो लम्बा इतिहास है, वह अतीत है। रोज हम इस मन में जोड़ दिये चले जाते हैं। जो भी हम अनुभव करते हैं, वह उसमें जुड़ जाता है / मैं कुछ बोल रहा हूं, यह आपके मन में जुड़ जायेगा / आपका मन रोज बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है, फैलता जा रहा है। बुद्धत्व, जिनत्व, इस मन के अतीत के पार उठने की घटना है। जिस दिन कोई व्यक्ति अपने अतीत का त्याग कर देता है, अपने सारे मनों को छोड़ देता है, और अपनी चेतना को मन के पार खींच लेता है और कहता है, अब मैं न शरीर हूं, न अब मैं मन हूं, अब मैं केवल जाननेवाला हूं, जो मन को भी जानता है-वह हूं-अब मैं आब्जेक्ट नहीं हूं, जाने-जानी वाली चीज नहीं हूं-ज्ञाता हूं, चिन्मय हूं, चैतन्य हूं। कहने से नहीं-मन यह भी कह सकता है, यही बड़ा मजा है। मन यह भी कह सकता है कि मैं चैतन्य हं, आत्मा हं, परमात्मा है। लेकिन अगर यह मन कह रहा है, अगर यह आप सुनी हुई बात कह रहे हैं, तो इसका आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह आपका अनुभव बन जाये और आप मन के पार अपने को पहचान लें कि यह मैं मन से अलग हूं, तब बुद्धत्व है। बुद्ध से कोई पूछता है / बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। एक ज्योतिषी बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। उसने बुद्ध के पैर देख लिए रेत पर बने हुए। वह काशी से लौट ही रहा था अपने पाण्डित्य की डिग्री लेकर / वह बड़ा ज्योतिषी था। उसने पोथे पण्डित, अपनी सारी पोथियां लेकर चला आ रहा था। उसने देखे बुद्ध के चरण, गीली रेत पर, गीली मिट्टी पर पैर के चिह्न थे। वह चकित हो गया / यह आदमी सम्राट होना चाहिए ज्योतिष के हिसाब से / पैर के चिह्न सम्राट के चिह्न हैं / लेकिन कौन सम्राट, नंगे पैर इस साधारण से गरीब गांव की रेत में चलने आयेगा! वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अभी लौटा ही है काशी से / उसने कहा कि अगर इस साधारण से गांव-देहात में सम्राट नंगे पैर रेत में चलते हों, सम्राट मिलते हों, तो पोथी वगैरह यहीं, इसी नदी में डुबाकर हाथ जोड़ लेना चाहिए। कोई मतलब नहीं है। इस आदमी को खोजना पड़ेगा। __ वह खोज करके पहुंचा, तो बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। बड़ी मुश्किल में पड़ गया ज्योतिषी / जिसको सम्राट होना चाहिए, वह भिक्षा पात्र लिए बैठा है ! अगर यह आदमी सही है, तो ज्योतिष गलत है। अगर ज्योतिष सही है तो इस आदमी को यहां होना ही नहीं चाहिए इस वृक्ष के नीचे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340028
Book TitleMahavir Vani Lecture 28 Samay aur Mrutyu ka Antarbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size78 MB
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