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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 कहते थे, नींद मिल जाये तो सब मिल जाये। नींद मिल जाये तो न मुझे ईश्वर चाहिए, न आत्मा चाहिए। और अब जब नींद मिल गयी तो आप कहते हैं, नींद तो मिल गयी, और कुछ भी नहीं मिला। उन्होंने मुझे धन्यवाद तक नहीं दिया। स्वर्ग वगैरह तो दूर, बल्कि मुझे उनकी बात सुनकर ऐसा लगा कि मुझसे कोई अपराध हो गया। उन्होंने कहा, नींद तो मिल गयी, और कुछ भी नहीं मिला। वह मुझसे शिकायत करने आये हैं, ऐसा उनका भाव लगा कि और कुछ भी नहीं मिला। ___ मैंने उनसे पूछा, और क्या चाहिए? जिस दिन वह भी मिल जायेगा, आप ऐसा ही आकर कहोगे, ईश्वर तो मिल गया, और कुछ भी नहीं मिला। वह और है क्या? वह और कब मिलेगा? वह और कहीं है नहीं, वह हटता हुआ क्षितिज है, होराइजन है। जो भी चीज मिल जाती है, वह उससे हट जाता है, वह आगे निकल जाता है। हम कहते हैं वह...वह और कुछ है नहीं। वह हमारा सम्मोहन है जो आगे खिसक जाता है। हम वस्तुओं में नहीं जीते, हम उस और के सम्मोहन में जीते हैं। वह मिल जाये, तो सब मिल जाये। जब वह मिल जाता है, तो हमारा और, और आगे सरक जाता है। आकाश छूता दिखता है जमीन को, उसे हम क्षितिज कहते हैं। कहीं छूता नहीं आकाश जमीन को, लेकिन दिखता है छूता हुआ। आंख से ही देखने से कुछ सच नहीं होता दुनिया में। लोग कहते हैं, हम तो प्रत्यक्ष को मानते हैं। वह आकाश छूता दिखायी पड़ता है प्रत्यक्ष, जमीन को। आंखें भी बड़ा धोखा देती हैं। जायें, खोजने उस क्षितिज को। आगे बढ़ेंगे, क्षितिज भी आगे बढ़ता जायेगा। लेकिन कहीं भी खड़े रहें, आगे आकाश छूता हुआ दिखायी पड़ता रहेगा। वह है और, क्षितिज, कहीं छूता नहीं। कहीं भी मनुष्य की वासना तृप्ति को नहीं छूती। कहीं आकाश पृथ्वी को नहीं छूता। वासना आगे बढ़ती है, तृप्ति आगे हट जाती है-और। और यह और कभी भी नहीं मिलता। इसे महावीर मूर्छा कहते हैं। मूर्छा परिग्रह है। वस्तुओं का होना नहीं, वस्तुओं में स्वर्ग का दिखायी देना। मकान का होना परिग्रह नहीं है; लेकिन मकान में अगर किसी को मोक्ष दिखायी पड़ रहा है, परमात्मा, तो परिग्रह है। धन परिग्रह नहीं है, लेकिन धन में अगर / को दिखायी पड़ रहा है परमात्मा, तो परिग्रह है। धन, धन है, मगर बड़े मजे के लोग हैं हम सब। या तो हम कहते हैं, धन परमात्मा है, या हम कहते हैं, धन मिट्टी है। लेकिन, धन, धन है, ऐसा कोई कहनेवाला नहीं मिलता। __ धन सिर्फ धन है; न मिट्टी, न परमात्मा। या तो हम शिखर पर रखते हैं, वह भी झूठ है। और जब हम झूठ से परेशान हो जाते हैं, तो हम दूसरा झूठ पैदा करते हैं कि धन मिट्टी है। धन मिट्टी भी नहीं है। धन सिर्फ धन है। वस्तुएं जो हैं, वही हैं, लेकिन हम कुछ न कुछ करेंगे। या तो स्वर्ग से जोड़ेंगे, या नरक से जोड़ेंगे। हम नरक से क्यों जोड़ना चाहते हैं? स्वर्ग से जोड़-जोड़कर जब हम ऊब जाते हैं और कोई स्वर्ग नहीं पाते, तो क्रोध में हम नरक से जोड़ना शुरू कर देते हैं। जिसको हम पहले कहते थे स्वर्ग, वह जब नहीं मिलता तो हम अपने को समझाने के लिए कहने लगते हैं, वह तो नरक है, पाने योग्य नहीं है। पहले हम धन में कहते थे, मिल जायेगा सब कछ; अब हम कहते हैं, धन में क्या रखा है? हाथ का मैल है. मिट्टी है। मगर यह भी तरकीब है मन की। धन सिर्फ धन है। धन का मतलब है, वह विनिमय का साधन है। __मिट्टी विनिमय का साधन नहीं है। उससे चीजें बदली जा सकती हैं, मिट्टी से नहीं बदली जा सकतीं। वह चीजों के बदलने का उपयोगी माध्यम है। ठीक है, उतना काफी है। उससे ज्यादा आशा रखना गलत है। वह ज्यादा आशा जब हार जाती है, तो हम नीचे गिराकर देखना शुरू करते हैं। हम दूसरी अति पर हट जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत आसान है, लेकिन वस्तु के सत्य पर रुक जाना बहुत कठिन है। 454 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340024
Book TitleMahavir Vani Lecture 24 Sangraha Andar ke Lobh ki Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size73 MB
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