________________ महावीर-वाणी भाग : 1 हाथ स्वर्ग से नीचे खींच लोगे, तुम अचानक पाओगे, तुम्हारा नीचे का पैर भी नरक से मुक्त हो गया। वह उस बढ़े हुए हाथ का ही दूसरा अंग था। __ और जब आदमी न स्वर्ग न नरक-महावीर ने कहा है, स्वर्ग मत चाहना। क्योंकि स्वर्ग की चाहना नरक की ही चाहना है। इसलिए महावीर ने एक नया शब्द गढ़ा। हिंदू विचार में उसके लिए पहले कोई जगह न थी। हिंदू विचार स्वर्ग और नरक में सोचता था। महावीर ने एक नया शब्द दिया, 'मोक्ष'। मोक्ष का अर्थ है-न स्वर्ग, न नरक, दोनों से छुटकारा। ___ अगर हम वैदिक ऋषियों की प्रार्थना देखें, तो वे प्रार्थना कर रहे हैं स्वर्ग की, सुख की। महावीर की अगर हम धारणा समझें, तो वह स्वर्ग की और सुख की कामना नहीं कर रहे हैं। क्योंकि महावीर कहते हैं, सुख और स्वर्ग की कामना ही तो दुख और नरक का आधार है। महावीर कहते हैं, मैं सुख और दुख से कैसे मुक्त हो जाऊं। वैदिक ऋषि गाता है कि मैं कैसे दुख से मुक्त हो जाऊं और सुख को पा लूं। महावीर कहते हैं, मैं कैसे सुख और दुख दोनों से मुक्त हो जाऊं? यह बड़ी गहन मनोवैज्ञानिक खोज है। यह अन्वेषण गहरा है। महावीर मोक्ष की बात करते हैं। बुद्ध निर्वाण की बात करते हैं। यह बात द्वंद्व के बाहर जाने वाली बात है, कैसे दोनों के पार हो जाऊं। यह जो ब्रह्मचर्य है, यह जो यात्रा पथ है, दोनों के बाहर हो जाने का; यह जो ऊर्जा को भीतर ले जाना है, ताकि सुख और दुख बाहर हैं दोनों, उनसे छुटकारा हो जाये, यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, जिनोपदिष्ट है। इसके द्वारा पूर्वकाल में अनेक जीव सिद्ध हो गये, वर्तमान में हो रहे हैं, महावीर कहते हैं, और भविष्य में होंगे। यह शाश्वत है मार्ग। इस विधि से पहले भी लोग जागे, जिन हए। महावीर कहते हैं, आज भी हो रहे हैं। और महावीर कहते हैं, भविष्य में भी होते रहेंगे। यह मार्ग सदा ही सहयोगी रहेगा। लेकिन हम बड़े अदभुत लोग हैं। महावीर के साधु-संन्यासी भी लोगों को समझाते हैं कि यह पंचम काल है, इसमें कोई मुक्त नहीं हो सकता! जैसा हिंदू मानते हैं, कलिकाल है, कलियुग है, ऐसा जैन मानते हैं, पंचम काल है। इसमें कोई मुक्त नहीं हो सकता। इससे हमको राहत भी मिलती है कि जब कोई हो ही नहीं सकता, तो हम भी अगर न हुए तो कई हर्ज नहीं है। इससे साधु-संन्यासियों को भी सुख रहता है, क्योंकि आप उनसे भी नहीं पूछ सकते कि आप मुक्त हुए! पंचम काल है, कोई मुक्त नहीं हो सकता। ___ महावीर की ऐसी दृष्टि हो नहीं सकती। क्योंकि महावीर कहते हैं, चेतना कभी भी मुक्त हो सकती है। समय कोई बंधन नहीं है। इसलिए वे कहते हैं, यह मार्ग शाश्वत है। पीछे भी लोग मुक्त हुए, आज भी हो रहे हैं, महावीर कहते हैं, और भविष्य में भी होते रहेंगे। जो भी इस मार्ग पर जायेगा वह मुक्त हो जायेगा। इस मार्ग पर जाने की जो कुंजी, जो सीक्रेट की है, वह उतनी ही है कि हम सुख और दुख दोनों को छोड़ने को राजी हो जायें। इंद्रियां जो हमें संवाद देती हैं उनके साथ हमारा ध्यान जड कर रस का निर्माण न करे। यह रस बिखर जाये भीतर तो शरीर और आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं। सेतु गिर जाता है, संबंध टूट जाता है। ___ और जिस दिन हम जान लेते हैं कि मैं अलग हूं शरीर से। ध्यान अलग है, इंद्रियों से। चेतना अलग है, पार्थिव आवरण से। उस दिन नरक और स्वर्ग दोनों विलीन हो जाते हैं। वे दोनों स्वप्न थे। उस दिन हम पहली बार अपने भीतर छिपी हुई आत्यंतिक स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं। महावीर इस अवस्था को सिद्ध अवस्था कहते हैं। सिद्ध का अर्थ है-वह चेतना जो अपनी संभावना की परिपूर्णता को उपलब्ध हो गयी। जो हो सकती थी, हो गयी। जो खिल सकता था फूल, पूरा खिल गया। इसकी कोई निर्भरता बाहर न रही। यह सब भांति स्वतंत्र हो गयी। इसका सारा आनंद अब भीतर से आता है। आंतरिक निर्झर बन गया है। अब इसका कोई आनंद बाहर से नहीं आता, और जिसका कोई आनंद बाहर से नहीं आता, 438 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org