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________________ अनशन के बाद महावीर ने दूसरा बाह्य-तप ऊणोदरी कहा है। ऊणोदरी का अर्थ है : अपूर्ण भोजन, अपूर्ण आहार / आश्चर्य होगा कि अनशन के बाद ऊणोदरी के लिए क्यों महावीर ने कहा है! अनशन का अर्थ तो है निराहार। अगर ऊणोदरी को कहना भी था तो अनशन के पहले कहना था, थोड़ा आहार। और आमतौर से जो लोग भी अनशन का अभ्यास करते हैं वे पहले ऊणोदरी का अभ्यास करते हैं। वे पहले आहार को कम करने की कोशिश करते हैं। जब आहार कम में सुविधा हो जाती है, आदत हो जाती है तभी वे अनशन का प्रयोग करते हैं और वह बिलकुल ही गलत है। महावीर ने जानकर ही पहले अनशन कहा और फिर ऊणोदरी कहा। ऊणोदरी का अभ्यास आसान है। लेकिन एक बार ऊणोदरी का अभ्यास हो जाए तो अभ्यास हो जाने के बाद अनशन का कोई अर्थ, कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। वह मैंने आपसे कल कहा कि अनशन तो जितना आकस्मिक हो और जितना अभ्यासशून्य हो, जितना प्रयत्नरहित हो, जितना अव्यवस्थित और अराजक हो, उतनी ही बड़ी छलांग भीतर दिखाई पड़ती है। ऊणोदरी को द्वितीय नम्बर महावीर ने दिया है, उसका कारण समझ लेना जरूरी है। ऊणोदरी शब्द का तो इतना ही अर्थ होता है कि जितना पेट मांगे उतना नहीं देना। लेकिन आपको यह पता ही नहीं है कि पेट कितना मांगता है। और अकसर जितना मांगता है वह पेट नहीं मांगता है, वह आपकी आदत मांगती है। और आदत में और स्वभाव में फर्क न हो तो अत्यंत कठिन हो जाएगी बात / जब रोज आपको भूख लगती है, तो आप इस भ्रम में मत रहना कि भूख लगती है। स्वाभाविक भूख तो बहुत मुश्किल से लगती है; नियम से बंधी हुई भूख रोज लग आती है। जीव विज्ञानी कहते हैं, बायोलाजिस्ट कहते हैं कि आदमी के भीतर एक बायोलाजिकल क्लाक है, आदमी के भीतर एक जैविक घड़ी है। लेकिन आदमी के भीतर एक हैबिट क्लाक भी है, आदत की घड़ी भी है। और जीव विज्ञानी जिस घड़ी की बात करते हैं, जो हमारे गहरे में है उसके ऊपर हमारी आदत की घड़ी जो हमने अभ्यास से निर्मित कर ली है। इस पृथ्वी पर ऐसे कबीले हैं, तारों वर्ष से। और जब उन्हें पहली बार पता चला कि ऐसे लोग भी हैं जो दिन में दो बार भोजन करते हैं तो वे बहुत हैरान हुए। उनकी समझ में ही नहीं आया कि दिन में दो बार भोजन करने का क्या प्रयोजन होता है! इस पृथ्वी पर ऐसे कबीले हैं जो दिन में दो बार भोजन कर रहे हैं हजारों वर्षों से। ऐसे भी कबीले हैं जो दिन में पांच बार भी भोजन कर रहे हैं। इसका बायोलाजिकल, जैविक जगत से कोई संबंध नहीं है। हमारी आदतों की बात है। आदतें हम निर्मित कर लेते हैं इसलिए आदतें हमारा दूसरा स्वभाव बन जाती हैं। और हमारा फिर पहला प्राथमिक स्वभाव आदतों के जाल के नीचे ढंक जाता है। 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340011
Book TitleMahavir Vani Lecture 11 Unodari evam Vrutti Sankshep
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size75 MB
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