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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 गलती पर हैं। वे दुराशाएं कर रहे हैं, वे हताश होंगे। ___ लेकिन जो व्यक्ति निरंतर, 'अरिहंत मंगल हैं, लोक में उत्तम हैं, श्रेष्ठ हैं', वही जीवन में पाने का, ऐसा सूत्र खयाल में रखता है और कभी-कभी न भी समझ में आता हो फिर भी रिचुअल रिपीटीशन करता है; न भी समझ में आता हो, न भी खयाल में आता हो, ऐसे ही दोहराये चला जाता है; तो भी तो गुब्ज बनते हैं। ऐसे भी दोहराये चला जाता है तो भी चित्त पर निशान बनते हैं। वे निशान किसी भी क्षण, किसी प्रकाश के क्षण में सक्रिय हो सकते हैं। जिसने निरंतर कहा है कि अरिहंत लोक में उत्तम हैं, उसने अपने भीतर एक धारा प्रवाहित की है- कितनी ही क्षीण / लेकिन अब वह अरिहंत होने के विपरीत जाने लगेगा तो उसके भीतर कोई उससे कहेगा कि तुम जो कर रहे हो वह उत्तम नहीं है, वह लोक में श्रेष्ठ नहीं है। जिसने कहा है, 'सिद्ध लोक में श्रेष्ठ हैं, जब वह अपने को खोने जा रहा होगा तब कोई उसके भीतर स्वर कहेगा कि सिद्ध तो अपने को पाते हैं, तुम अपने को खोते हो, बेचते हो। जिसने कहा है, 'साधु लोकोत्तम हैं, उसको किसी क्षण असाधु होते वक्त यह स्मरण रोकनेवाला बन सकता है। जानकर, समझकर किया गया, तब तो परिणामदायी है ही। न जानकर, न समझकर किया हुआ भी परिणामदायी हो जाता है। क्योंकि रिचअल रिपीटीशन भी, सिर्फ पनरुक्ति भी, हमारे चित्त में रेखाएं छोड जाती है-मत, लेकिन फिर भी छोड जाती है। और किसी भी क्षण वे सक्रिय हो सकती हैं। यह नियमित पाठ के लिए है, यह नियमित भाव के लिए है, यह नियमित धारणा के लिए है। __इसमें अंतिम बात थोड़ा और ठीक से समझ लें। महावीर ने जिस परंपरा और जिस स्कूल, जिस धारा का उपयोग किया है उसमें श्रेष्ठतम पर मनुष्य की ही शुद्ध आत्मा को रखा है। मनुष्य की ही शुद्ध आत्मा परमात्मा मानी है। इसलिए महावीर के हिसाब से इस जगत में जितने लोग हैं उतने भगवान हो सकते हैं। जितने लोग हैं- लोग ही नहीं, जितनी चेतनाएं हैं वे सभी भगवान हो सकती हैं। महावीर की दृष्टि में भगवान का एक होने का जो खयाल है वह नहीं है। अगर ठीक से समझें तो दुनिया के सारे धर्मों में भगवान की जो धारणा है वह अरिस्टोक्रेटिक है, एक की है। सिर्फ महावीर के धर्म में वह डेमोक्रेटिक है, सब की है। - प्रत्येक व्यक्ति स्वभाव से भगवान है। वह जाने न जाने; वह पाये न पाये; वह जन्म-जन्म भटके; अनंत जन्म भटके; फिर भी इससे डता, वह भगवान है। और किसी न किसी दिन वह जो उसमें छिपा है, प्रकट होगा। और किसी न किसी दिन जो बीज है वह वृक्ष होगा। जो संभावना है वह सत्य बनेगा। __महावीर अनंत भगवत्ताओं में मानते हैं- अनंत भगवत्ताओं में, इनफिनिट डिइटीज। एक-एक आदमी डिवाइन है। और जिस दिन सारा जगत अरिहंत तक पहुंच जाए, उस दिन जगत में अनंत भगवान होंगे। महावीर का अर्थ 'भगवान' से है- जिसने अपने स्वभाव को पा लिया। स्वभाव भगवान है। भगवान की यह बहुत अनूठी धारणा है। जगत को बनानेवाले का सवाल नहीं है भगवान से, जगत को चलानेवाले का सवाल नहीं है भगवान से। महावीर कहते हैं- कोई बनानेवाला नहीं है, क्योंकि महावीर कहते हैं- बनाने की धारणा ही बचकानी है / और बचकानी इसलिए है कि उससे कुछ हल नहीं होता है। हम कहते हैं जगत को भगवान ने बनाया। फिर सवाल खड़ा हो जाता है कि भगवान को किसने बनाया? सवाल वहीं का वहीं बना रहता है। एक कदम और हट जाता है। जो कहता है भगवान ने जगत को बनाया', वह कहता है, भगवान को किसी ने नहीं बनाया / महावीर कहते हैं- जब भगवान को किसी ने नहीं बनाया, ऐसा मानना ही पड़ता है कि कुछ है जो अनबना है, अनक्रियेटेड है, तो इस सारे जगत को ही अनक्रियेटेड मानने में कौन सी अडचन है? अडचन तो एक ही थी मन को कि बिना बनाये कोई चीज कैसे बनेगी? 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340002
Book TitleMahavir Vani Lecture 02 Mangal va Lokottam ki Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size92 MB
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