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________________ इस शोध प्रबंध के प्रकाशन की बात चली तो मित्रों ने सलाह दी कि इसकी भूमिका के लिए गांधीजी से संपर्क करना उचित होगा। उन्होंने अपना प्रबंध बंबई (मुंबई) के मणि भवन पहुंचा दिया। गांधीजी ने निश्चित तारीख को उन्हें साबरमती आश्रम, अहमदाबाद में मुलाकात के लिए समय दिया। वर्ष 1929 ई० में गांधीजी के साथ मुलाकात ने कुमारप्पा के जीवन एवं विचार को बदल दिया। गांधीजी ने इस प्रबंध को यंग इंडिया में प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की। सामान्य झोपड़ी में ग्रामीण भेष (वेश) में चरखे पर कताई करते गांधी से मिलने पर उन्हें अर्थशास्त्र की कुंजी मिली, जिससे अर्थशास्त्र के ताले को खोलने के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया और गांधी के निर्देश के अनुसार अर्थशास्त्र के विचार और व्यवहार के प्रयोग प्रारंभ किए। दांडी यात्रा के समय राजस्व और हमारी दरिद्रता पर लेख प्रकाशित हुआ। कुमारप्पा गुजरात विद्यापीठ में प्राध्यापक बनाए गए और इस अवधि में 1930 ई० में गांधीजी की सलाह पर मातार तालुका का विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण किया। यह भारत का प्रथम आर्थिक सर्वेक्षण था। यह एक ऐसा सर्वेक्षण था जिसमें भारतीय गांव की, किसानों की गरीबी की स्थिति का प्रामाणिक विश्लेषण किया गया था। योजना निर्माण में आधारभूत सर्वेक्षण की भूमिका को स्थापित करने वाला यह मौलिक सर्वेक्षण माना जाता है। गांधीजी की अध्यक्षता एवं कुमारप्पा के मंत्रित्व में अ०भा० ग्रामोद्योग संघ की स्थापना हुई। ग्रामोद्योग संघ के सलाहकार समिति में श्री रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री जे०सी० बोस, श्री पी०सी० राय, श्री सी०वी० रमण, श्री जमाल मुहम्मद, श्री जी०डी० बिरला, श्री सॉम हिगिनबाथम, श्री एम०ए० अंसारी, श्री राबर्ट मेककारिसन आदि थे। अ०भा०ग्रा० संघ के पांच कार्य माने गए। 1. शोध 2. उत्पादन 3. प्रशिक्षण 4. विस्तार और संगठन 5. प्रचार प्रकाशन। 20 वर्षों तक कुमारप्पा ने अ०भा०ग्रा० संघ के माध्यम से अनेक शोध प्रयोग किए, साहित्य-प्रकाशन किया। ग्रामोद्योग पत्रिका का हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशन उल्लेखनीय है। कुमारप्पा ने 30 से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया जो कि अर्थ-विचार एवं प्रयोग की दृष्टि से आज भी पठनीय है। प्रो० जे०सी० कुमारप्पा ने आधुनिक पाश्चात्य आर्थिक विचार को संदर्भगत रखते हुए स्थायी समाज व्यवस्था के रुप में अर्थविचार एवं व्यवहार के अनेक प्रयोग किए। इस विचार को संबोधन की दृष्टि से कई समानार्थी शब्दों का उपयोग किया जाता रहा है। गांधी ने सर्वोदय, ग्राम स्वराज्य, रामराज्य जैसे शब्द का प्रयोग किया। बीसवीं सदी में श्री ई०एफ० शुमाकर ने बुद्ध के नाम से शांतिलक्ष्यी बौद्ध अर्थव्यवस्था कहा। इसे स्माल इज ब्युटिफुल जैसे शब्दों से संबोधित किया। कुमारप्पा ने उसे स्थायी समाज व्यवस्था कहा जो कि समग्र चिंतन को प्रतिध्वनित करता है। उनकी मौलिक पुस्तक का शीर्षक है स्थायी समाज व्यवस्था, जिसमें अपरिग्रह पर आधारित समाज व्यवस्था की खोज है तथा यह शीर्षक कुमारप्पा के अर्थ विचार का आधार है। इसमें प्रकृति और सादगी पर आधारित स्थायी समाज-व्यवस्था के सूत्र हैं। कुमारप्पा ने अर्थशास्त्र के बारे में जो विचार रखे, उसमें उदाहरण देकर लोक जीवन एवं व्यवस्था का विश्लेषण किया है। उनके विचार स्पष्ट एवं सामान्य जन की पकड़ की सीमा में है। अतः, उनके विचार को उन्हीं की भाषा में समझना उचित होगा। स्थायी समाज व्यवस्था की भूमिका में गांधीजी ने लिखा है इसका पूरा मतलब (पुस्तक का) समझ में आने के लिए इसे कम से कम दो या तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ जाना चाहिए; ग्रामोद्योग के इस डॉक्टर ने इस प्रबंध द्वारा यह बतलाया है कि इन उद्योगों द्वारा ही देश की क्षणभंगुर मौजूदा समाज व्यवस्था को हटा कर स्थायी समाज व्यवस्था कायम की जा सकेगी। उन्होंने इस सवाल को हल करने की कोशिश की है कि क्या मनुष्य का शरीर उसकी आत्मा से श्रेष्ठ है। दूसरे शब्दों में इसी को सादा रहन-सहन और ऊंचा विचार कह सकते हैं। (मो०क० गांधी, 20-08-1945) कुमारप्पा ने स्थायी एवं अस्थायी व्यवस्था को स्थायी एवं क्षणभंगुर के रुप में विश्लेषण किया। कुदरत में ऐसी कुछ चीजें हैं, जिसमें प्रत्यक्ष रुप से कोई जान नहीं दिखाई देती और जो बढ़ती नहीं और इस्तेमाल होने पर खत्म हो जाते हैं। धरती (पर्यावरण/प्रकृति) में कई पदार्थों का संग्रह है जैसे—कोयला, पेट्रोल, लोहा, तांबा, सोना आदि। इनका इस्तेमाल करने से यह संग्रह समाप्त होगा, कम होगा, अतः इन्हें हम क्षणभंगुर कह सकते हैं। दूसरी ओर प्रकृति का ऐसा चक्र है, जिसमें अधिकांश चीजें, उस चक्र की प्रक्रिया में स्वत: ही नष्ट होती, पुनः जन्म लेती, बढ़ती है। पर्यावरण चक्र के कारण एक दाने (बीज) से सैकड़ों दाने पैदा होते, एक आम का बीज (पौध) बढ़कर पेड़ से असंख्य आम फल के रुप में देता। पत्तियां एक वर्ष में जन्म से वृद्ध होकर गिरती और खाद के रुप में पोषण देती है। कुमारप्पा प्रकृति की इस व्यवस्था, इस चक्र को स्थायी मानते हैं। इस पर्यावरण चक्र को स्थापित रखना, उसका संरक्षण एवं संवर्धन करने की व्यवस्था ही स्थायी व्यवस्था है और यह प्राकृतिक अर्थरचना का आधार है जिसमें व्यक्ति के जीवन में नि:स्वार्थी मूल्य का होना आवश्यक है। कुमारप्पा का मानना है कि क्षणभंगुर प्राकृतिक संसाधन पर आधारित व्यवस्था क्षणभंगुर होगी, अस्थायी होगी साथ ही स्वार्थ, परिग्रह, हिंसा एवं शोषण पर आधारित होगी—उसे बढ़ाने वाली होगी। इस विचार का आज की परिस्थिति, विश्व में स्थापित व्यवस्था एवं नीति के संदर्भ में स्थिति विश्रूषण करें तो समझ अधिक मजबूत हो सकेगी। आज का अर्थशास्त्र, उसका व्यावहारिक स्वरुप क्षणभंगुर संसाधनों पर आधारित है—निर्भर है। अपने आस-पास, गांवघर की गतिविधियों, देश-परदेश की गतिविधियों को देखें तो पाते हैं कि पूरा विश्व क्षणभंगुर संसाधनों के दोहन-शोषण में जुटा है; उसे अपने कब्जे में रखने, उस पर आधिपत्य जमाने में जुटा है। आज की व्यवस्था तेल, खनिज, लोहा, ऊर्जा-संसाधनों का शोषण-दोहन कर धरती को खाली कर देने में जुटी है। हमारी अर्थ-व्यवस्था इसी क्षणभंगुर संसाधनों पर निर्भर है। देश की खेती, उद्योग सभी उसी
SR No.269089
Book TitleAparigraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorD R Mehta
PublisherD R Mehta
Publication Year
Total Pages16
LanguageEnglish
ClassificationArticle, Five Geat Vows, & C000
File Size191 KB
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