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________________ अद्ल ( न्याय) : अल अरबी भाषा का शब्द है और उसका मूल शाब्दिक अर्थ समानता और बराबरी है। अद्ल (न्याय) का शब्द संज्ञा और विशेषण दोनों अर्थों में इस्तेमाल होता है, संज्ञा के रूप में न्याय करने के अतिरिक्त यह अल्लाह का नाम भी है जो न्याय करता है और न्यायप्रिय है। विशेषण के रूप में अल (न्याय) का शब्द न्यायशीलता के अर्थों में इस्तेमाल होता है। (नुरुगात तीसरा भाग 546) इसी प्रकार अदल का अर्थ न्याय व न्यायशीलता के अलावा सीधा, न्यायपूर्ण और संतुलन भी हैं। अदल (न्याय) के बुनियादी अर्थ को सामने रखते हुए टीकाकारों ने कहा है 1. अधिकता व न्यूनता के बीच (रहने) का ध्यान रखना और यह चीज (अल) समस्त श्रेष्ठताओं की जड़ है। (अलजौहरी, पृ0166) 2. अर्थात आपसी अधिकारों में ठीक ठीक न्याय और बराबरी का ध्यान रखना और हर हकदार को उसका हक पहुंचाना और अत्याचार न करना। (अलकासमी, 3850) 3. हक को हकदार तक पहुंचना और हर चीज को ठीक उसकी जगह पर रखना और यह (न्याय) जमीन में मानो अल्लाह की तुला है। ( फिकरी, 134) उन्नीसवी सदी के मध्य में उसमानी सल्तनत में इस्लामी कानून का जो संकलन हुआ उसमें अल व आदिल की परिभाषा इस प्रकार की गयी है: अल या आदिल वह है जिसमें भलाई के पहलू बुराई के पहलुओं पर हावी हुए हों। आदिल उस व्यक्ति को कहते हैं जिसके अंदर भलाई का पहलू अधिक हो और जो अनिवार्य रूप से इस्लाम के बताए हुए भावार्थ के अनुसार अच्छे आचरण वाला हो । इस्लाम की बुनियादी किताब कुरआन मजीद में अल (न्याय) का शब्द अनेक स्थानों पर इस्तेमाल हुआ है, जिसका कुल मिला कर यह मतलब निकल कर सामने आता है कि अल्लाह का हर कार्य न्याय पर आधारित है। कायनात की व्यवस्था से लेकर मानव समाज और शरीर तक हर चीज में उसके न्याय की विशेषता के दर्शन होते हैं । अल्लाह आदिल है, अल (न्याय) को पसंद करता है और मनुष्यों के बीच अल यानी न्याय करने का आदेश देता है। कुरआन की सोलहवीं सूरह नहल की आयत 90 में अल्लाह ने मानव समाज के सुधार के लिए जिन मूल चीजों का आदेश दिया है उनमें पहली चीज अल (न्याय) है। सूरह नजम की आयत 16 के तहत अल की व्याख्या करते हुए बीसवीं सदी के प्रख्यात इस्लामी विचारक सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं- पहली चीज अल ( न्याय) है जिसकी अवधारणा दो स्थाई वास्तविकताओं का मिश्रण है। एक यह कि लोगों के बीच अधिकारों में संतुलन स्थापित हो । दूसरे यह कि हरेक को उसका हक बेलाग तरीके से दिया जाए। उर्दू भाषा में इस भावार्थ को इंसाफ शब्द से अभिव्यक्त किया जाता है। मगर यह शब्द भ्रम पैदा करने वाला है। इससे व्यर्थ में यह अवधारणा पैदा होती है कि दो लोगों के बीच अधिकारों का विभाजन आधे-आधे की बुनियाद पर हो और फिर इसी से अल (न्याय) का अर्थ समान अधिकारों का विभाजन समझ लिया गया है जो प्रकृति के पूरी तरह खिलाफ है। असल में न्याय जिस चीज की मांग करता है वह संतुलन है न कि समानता । कुछ स्थितियों से तो न्याय निःसंदेह समाज में मौजूद लोगों के बीच समानता चाहता है जैसे नागरिक अधिकारों में, मगर कुछ दूसरी स्थितियों में समानता पूरी तरह न्याय के विरुद्ध है जैसे मां बाप और संतान के बीच सामाजिक व नैतिक समानता और उच्च दर्जे की सेवाएं करने वालों और निम्न स्तर की सेवा करने वालों के बीच वेतन की समानता । अल्लाह तआला ने जिस चीज का आदेश दिया है वह अधिकारों में समानता नहीं बल्कि संतुलन है और इस आदेश का तकाजा है कि हर व्यक्ति को उसके नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, कानूनी और राजनीतिक व सांस्कृतिक अधिकार पूरी ईमानदारी के साथ दिए जाएं। (तफहीमुल कुरआन भाग-2-565 ) एक और विद्वान अल (न्याय) के बारे में बात करते हुए लिखते हैं- आदेशों व कष्टों (शरओ आदेशों) में भी यही राह वाला उसूल नजर आता है, आत्मा और शरीर में से किसी की जरूरतों की अवहेलना नहीं की गई बल्कि हर मामले में न्याय के लिए बीच की राह को ध्यान में रखा गया है। इस्लाम में सांसारिक इच्छाओं और शारीरिक वासनाओं में डूब जाने से रोका गया है मगर संसार को पूरी तरह त्याग देने (संन्यास) का आदेश भी नहीं दिया गया अर्थव्यवस्था में फिजूलखर्ची और कंजूसी के बीच संतुलित रास्ता अपनाने का हुक्म दिया गया है। (प्रो० हाफिज अहमदयार, हिक्मते कुरआन, लाहौर, जुलाई - सितंबर 2009, पृ० १ ) न्याय के बारे में इस्लाम की उपरोक्त अवधारणा की व्याख्या से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम मानव समाज में संतुलन को पसंद करता है। वह एक ऐसे मानव समाज का निर्माण करना चाहता है जिसमें हर व्यक्ति और वस्तु को उसका उचित और ठीक ठीक स्थान प्राप्त हो। यही कारण है कि जब कुरआन मजीद में पैगम्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्ल० की जिम्मेदारियों को व्यक्त किया गया तो स्पष्ट रूप से बताया गया - और मुझे आदेश दिया गया है कि मैं तुम्हारे बीच न्याय करूं । (शूरा - 15 ) कुरआन में एक अन्य स्थान पर अल्लाह ने मनुष्यों को एकेश्वरवाद के साथ जिस चीज की शिक्षा दी है वह अल (न्याय) है और इसके लिए मीजान और किस्त के शब्द इस्तेमाल किए गए हैं। (देखें सूरह रहमान की आयतें 8 व 9) इन आयतों में अल्लाह ने कायनात की व्यवस्था में न्याय व संतुलन का उल्लेख करते हुए लोगों को बताया है कि तुम जिस कायनात में रहते हो, वह एक अच्छी-भली व संतुलित कायनात है। कायनात की एक-एक वस्तु की बनावट से लेकर मानव जीवन के संसाधनों तक हर हर चीज में संतुलन पाया जाता है, अतः अल्लाह अपनी सृष्टि अर्थात मनुष्यों से भी मांग करता है कि यदि वे चाहते हैं (6)
SR No.269089
Book TitleAparigraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorD R Mehta
PublisherD R Mehta
Publication Year
Total Pages16
LanguageEnglish
ClassificationArticle, Five Geat Vows, & C000
File Size191 KB
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