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|| 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी
365 जे आयरिय उवज्झझायाणं, सुस्सूया वयणंकरा।
तेसि सिक्खा पवळंति, जलसित्ता इव पायवा।। जो शिष्य आचार्य और उपाध्याय की सेवा-शुश्रूषा करने वाले हैं और उनकी आज्ञा का पालन करने वाले हैं, उनकी शिक्षा जल से सींचे गए वृक्षों के समान बढ़ती रहती है।
आचारांगसूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन 5 के उद्देशक 5 में शास्त्रकार ने कहा है, "इस मनुष्य लोक में वे आचार्य मन, वचन और काया से गुप्त, इन्द्रिय संयम से युक्त, प्रबुद्ध आगम ज्ञाता और आरम्भ से विरत महर्षि हैं- जो समाधिमरण के इच्छुक और मोक्षमार्ग में उद्यम करने वाले हैं।"
रायप्पसेणीय सूत्र में राजा प्रदेशी ने संथारे के समय आचार्य केशीकुमार को नमन किया है। उववाइय सूत्र में कोणिक द्वारा भगवान को परोक्ष वन्दन में 'धमाचार्य' शब्द का प्रयोग किया गया है। अम्बड़ के 700 शिष्यों ने संथारा ग्रहण करते हुए अरिहंतों और सिद्धों के बाद धर्माचार्य अम्बड़ को नमन किया है। आचार्यों की आठ सम्पदा
दशाश्रुतस्कन्ध की चौथी दशा और स्थानांग सूत्र के अष्टम स्थान में गणिसम्पदा सूत्र में आचार्यों की आठ सम्पदाओं का वर्णन है। साधु-समुदाय, गण या गच्छ के स्वामी को आचार्य, गणी या गच्छाधिपति कहते हैं और उनके गुणों के समूह को गणि सम्पदा। इन्हीं गुणों से आचार्य अपने मुख्य कर्तव्य ‘गण की रक्षा' का निर्वाह करते हैं।
___“इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं अट्ठविहा गणिसंपया पण्णता" (दशाश्रुतस्कन्ध) स्थविर भगवन्तों के द्वारा कथित आठ गणिसम्पदाएँ इस प्रकार हैं1. आयारसंपया (आचारसंपदा)- आचारसम्पन्न आचार्य का व्यवहार शुद्ध होगा तो संयम की
समृद्धि होगी। 2. सुयसंपया (श्रुतसंपदा)- अनेकों का मार्गदर्शक एवं निर्भय विचरण कर्ता होने के लिए आचार्य
का बहुश्रुत होना आवश्यक है। 3. सरीरसंपया (शरीरसंपदा)- ज्ञान और क्रिया भी शारीरिक सौष्ठव होने पर ही धर्म प्रभावना में
सहायक होते हैं। 4. वयणसंपया (वचनसंपदा)- आचार्य महाराज को आदेय, मधुर, आगम सम्मत स्पष्ट एवं निष्पक्ष
वचन बोलने चाहिए। 5. वायणासंपया (वाचनासंपदा)- वाचनाओं के द्वारा बहुश्रुत गीतार्थ प्रतिभा सम्पन्न शिष्यों को
तैयार करना भी आचार्य का गुण है। 6. मतिसंपया (मतिसंपदा)- औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी इन चार प्रकार की
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