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श्रमण जीवन के परीषह
श्री जौहरीमल छाजेड़
श्रमण द्वारा प्रत्येक कार्य मुक्ति के लक्ष्य से किया जाता है। अतः श्रमण अ जीवन में आने वाले कष्टों को या परीषहों को मुक्ति का हेतु समझकर विनय भाव से उन्हें स्वीकार करता है और समता भाव से सहन करता है । ये परीषह बाईस प्रकार के कहे गए हैं, जिन्हें लेखक ने उत्तराध्ययन सूत्र से संयोजित कर, उस पर जय प्राप्त करने वालों के दृष्टान्त भी साथ में योजित किये हैं। -सम्पादक
10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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विनय की सम्यक् शिक्षा प्रदान करने के पश्चात् गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी को कहा कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत दूसरे अध्ययन 'परीषहप्रविभक्ति' में 'परीषह - विजय" का उपदेश दिया है।
विनयाचरण से व्यक्ति धीर एवं साहसी बनता है और श्रमण एवं श्रमणी - जीवन में आने वाले परीषहों, कष्टों, अन्तर-बाह्य संघर्षों में विजयी होकर जीवन संग्राम में सफल विजेता बनता है। परीषह का अर्थः-धर्म पालन करते समय श्रमण-जीवन में आने वाले कष्टों को परीषह कहा है तथा धर्म पथ से विचलित हुए बिना कर्मों की निर्जरा हेतु धर्मबुद्धि से उन्हें समभावपूर्वक सहन करना परीषह-जय है। श्री सुधर्मा स्वामी ने शिष्य जम्बू स्वामी को ऐसे बाईस परीषह बतलाए हैं(1) क्षुधा परीषह:
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(i) शरीर भूख से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी संयम बल वाला तपस्वी साधु फलादि का स्वयं छेदन नहीं करे, दूसरों से छेदन नहीं करावे, अन्न आदि स्वयं न पकावे तथा दूसरों से भी नहीं पकवाये । श्रमण के लिए ग्रहणैषणा से सम्बद्ध नियमों का पालन करता हुआ ही आहार ग्रहण करे ।
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(ii) लम्बे समय से भूखा रहने के कारण शरीर कौए की जाँघ या काकजंघा सम तृण के समान अत्यन्त दुर्बल हो जाए, तो भी आहार- पानी की मर्यादा को जानने वाला साधु, मन में दीनता के भावन लाता हुआ, दृढ़ता के साथ संयममार्ग पर विचरण करे ।
कथा:- उज्जयिनी निवासी हस्तिमित्र के विरक्त एवं प्रव्रजित पुत्र हस्तिभूति की कथा द्रष्टव्य है।
(2) पिपासा परीषहः -
(i) पिपासा (तृषा) से पीड़ित होने पर असंयम में अरुचि रखने वाला लज्जाशील एवं संयमी मुनि सचित्त जल का सेवन न करे, किन्तु अचित्त प्रासुक जल की एषणा करे ।
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