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10 जनवरी 2011
जिनवाणी
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इस नियुक्ति में नाम-निक्षेप से 'श्रमण' शब्द की व्याख्या कर श्रमण के भावों की स्थितियों के आधार पर और क्रियाओं के आधार पर अनेक उपमाओं से उपमित कर उसका विशद वर्णन किया गया है । प्रस्तुत लेख में श्रमण की उन भाव-स्थितियों और क्रियाओं उपमित उपमाओं का संकलन कर संयोजन किया गया है, जो निम्न प्रकार है
1. श्रम के आधार पर -
निर्युक्तिकार कहते हैं
सामण्ण पुव्वगस्स उ निक्खेवो होइ नाम निप्फन्नो ।'
इस पर हरिभद्रसूरि ने टीका करते हुए स्पष्ट किया है कि श्रमण का तात्पर्य है श्रम सहन करने वाला। श्रम सहन करने का भाव श्रामण्य है। धैर्य रखना साधुत्व का मूल कारण है जिससे वह 'श्रमण'
कहलाता है।
2. समानता के आधार पर -
निर्युक्तिकार कहते हैं
हम न पयं दुक्खं, जाणि य एमेव सव्व जीवाणं । न हणइ न हणावेइय, सम मणई तेण सो समणो ।।'
जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है उसी प्रकार सभी जीवों को वह प्रतिकूल लगता है, यह जानकर किसी भी जीव को मारता न हो, अन्य से मरवाता न हो और मारने वाले का अनुमोदन भी न करता हो, ऐसा सभी के प्रति समानता रखने वाला 'श्रमण' है। 3. राग-द्वेष का अकर्ता
निर्युक्तिकार कहते हैं
नथियसि कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नोऽवि पज्जाओ।'
जो किसी भी वेश वाले से तुल्य भाव रखता है अर्थात् सभी के साथ समान भाव करता है, किसी पर राग और किसी से भी द्वेष नहीं करता है वह सरलमना 'श्रमण' का ही दूसरा पर्याय है।
4. सुमन वाला
निर्युक्तिकार कहते हैं
तो समणो जइ सुमणो, भविणय जह न होइ पावमणो ।
सयणे य जणेय समो, समोय माणावमाणेसु ॥'
वह भी श्रमण है जो सुमन है अर्थात् जिसका द्रव्यमन और भावमन दोनों सरल हो, उसके मन में किसी प्रकार का पाप न हो, जो स्वजन एवं अन्यजन सभी जीवों से प्रेम करे और मान-अपमान में
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