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________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 307 श्रमण एवं श्रमणी के आचार में भेद डॉ. पदमचन्द मुणोत यद्यपि श्रमण एवं श्रमणी दोनों पंच महाव्रतधारी होकर पांच समितियों एवं तीन मियों का पालन करते हैं। आगम का अध्ययन करते हैं, तथापि शारीरिक संरचना के कारण श्रमण एवं श्रमणी के आचार में कई बिन्दु भिन्न हैं। उन आचारगत भिन्नताओं का उल्लेख प्रस्तुत आलेख में किया गया है। -सम्पादक श्रमण के दो अर्थ मुख्य हैं। एक यह कि तप और संयम में जो अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है, तपस्वी है, वह श्रमण है। दूसरा अर्थ है - त्रस स्थावर, सब प्रकार के जीवों के प्रति जिसके अन्तःकरण में समभाव एवं हित कामना है वह श्रमण है। उसे 'समन' या समण भी कहते हैं । एवंविध स्त्री साधक को श्रमणी अथवा महासती जी कहा जाता है। तप एवं संयम में स्थिर रहने के लिये भगवान् महावीर अपने ज्ञान के बल से एक आचारसंहिता उपदिष्ट की है, जिसका पूर्णता से पालन करने पर ही श्रमण एवं श्रमणी अपने लक्ष्य 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। इस आचारसंहिता में श्रमण एवं श्रमणी के आचार में अनेक परिस्थितियों में भेद दर्शाया गया है। इन भिन्नताओं का कारण श्रमणियों की शारीरिक संरचना, उनमें रही कोमलता, लज्जा के भाव व अन्य अनेक परिस्थितियाँ हैं। सम्बन्धित आगम हैं- आचारांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध आदि । श्रमण एवं श्रमणी के आचार में भेद का वर्णन बृहत्कल्प सूत्र के अनुसार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 1. साधु-साध्वियों के लिये गाँव आदि में प्रवास करने की काल मर्यादा वर्ष के बारह मासः - चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ (जेठ), आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन (आसोज) कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ व फाल्गुन । इनमें तीन मुख्य ऋतुएँ बनती हैं (भारत में ) - 1. ग्रीष्म, 2. वर्षा (प्रावृट) और 3. हेमन्त (शीत) चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ ये चार माह ग्रीष्म के हैं। अगले चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक वर्षा अथवा प्रावृट्र के होते हैं और शेष माह हेमन्त (शीत) के । Jain Educationa International वर्षा काल में अकायिक, वनस्पतिकायिक एवं एकेन्द्रिय तथा समूर्च्छिम त्रस जीवों की उत्पत्ति विशेष होती है। अतः इस काल में विचरण करने से इन जीवों की विशेष हिंसा होने की सम्भावना रहती है। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229987
Book TitleShraman evam Shramani ke Achar me Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadamchand Munot
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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