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जिनवाणी
10 जनवरी 2011
तनाव, अशान्ति और दुःख के कारण होते हैं ( 35 ) । इसलिए आचारांग का कथन है कि मनुष्य आशा और इच्छा को त्यागे ( 35 ) ।
2. जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, वह बहिर्मुखी ही बना रहता है, जिसके फलस्वरूप उसके कर्मबंधन नहीं हटते हैं और उसके विभाव संयोग ( राग-द्वेषात्मक भाव) नष्ट नहीं होते हैं ( 68 ) । अतः इन्द्रिय-विषय में अनासक्ति साधना के लिए आवश्यक है। यहीं से संयम की यात्रा प्रारम्भ होती है ( 46 ) । आचारांग का कथन है कि हे मनुष्य! तू अनासक्त हो जा और अपने को नियन्त्रित कर (67)। जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी ) लकड़ियों को नष्ट कर देती है, इसी प्रकार अनासक्त व्यक्ति राग-द्वेष को नष्ट कर देता है ( 60 ) ।
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3. कषाय मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट कर देता है। कषायों का राजा मोह है। जो एक मोह को नष्ट कर देता है, वह बहुत कषायों को नष्ट कर देता है (62) । अहंकार मृदु सामाजिक सम्बन्धों तथा आत्म-विकास का शत्रु है । कहा है कि उत्थान का अहंकार होने पर मनुष्य मूढ बन जाता है (75)। जो क्रोध आदि कषायों को तथा अहंकार को नष्ट करके चलता है वह संसार-प्रवाह को नष्ट कर देता है (55)।
4. मानव समाज में न कोई नीच है, न कोई उच्च है ( 30 )। सभी के साथ समता पूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिये। आचारांग के अनुसार समता में ही धर्म है।
5. इस जगत में सब प्राणियों के लिये पीड़ा अशान्ति है, दुःख युक्त है ( 23 ) । सभी प्राणियों के लिए यहाँ सुख अनुकूल होते हैं, दुःख प्रतिकूल होते हैं, दुःख अप्रिय होता है तथा जिन्दा रहने की अवस्थाएँ प्रिय होती हैं । सब प्राणियों के लिये जीवन प्रिय होता है ( 32 ) । अतः आचारांग का कथन है कि कोई भी प्राणी मारा नहीं जाना चाहिए, गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिये, शासित नहीं किया जाना चाहिए और अशान्त नहीं किया जाना चाहिए । यही धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है ( 64 ) । जो अहिंसा का पालन करता है, वह निर्भय हो जाता है (62) । हिंसा तीव्र से तीव्र होती है, परन्तु अहिंसा सरल होती है (62) । अतः हिंसा को मनुष्य त्यागे । प्राणियों में तात्त्विक समता स्थापित करते हुए आचारांग अहिंसा भावना को दृढ़ करने के लिए कहता है कि जिसको तू मारे जाने योग्य मानता है वह तू ही है, जिसको तू शासित किये जाने योग्य मानता है वह तू ही है, जिसको तू सताये जाने योग्य मानता है वह तू ही है, जिसको तू गुलाम बनाये जाने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसको तू अशान्त किये जाने योग्य मानता है, वह तू ही है (78) । इसलिए ज्ञानी (मुनि) जीवों के प्रति दया का उपदेश दें और दया पालन की प्रशंसा करें (85) ।
6. आचारांग ने समता और अहिंसा की साधना के साथ सत्य की साधना को भी स्वीकार किया है। आचारांग का शिक्षण है कि मनुष्य! तू सत्य का निर्णय कर, सत्य में धारणा कर और सत्य की आज्ञा में उपस्थित रह ( 52-61 ) ।
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