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________________ 10 जनवरी 2011 (26)1 जिनवाणी आचारांग का कथन है कि हे मनुष्यों ! आयु बीत रही है, यौवन भी बीत रहा है, अतः प्रमाद (आसक्ति) में मत फंसो (26) और जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो तब तक स्व-अस्तित्व के प्रति जागरूक होकर आध्यात्मिक विकास में लगो ( 28 ) । 283 आचारांग सर्व अनुभूत तथ्य को दोहराता है कि मृत्यु के लिए किसी भी क्षण न आना नहीं है। (32)। इसी बात को ध्यान में रखते हुए फिर आचारांग कहता है कि मनुष्य इस देह-संगम को देखे। यह देह संगम छूटता अवश्य है। इसका तो स्वभाव ही नश्वर है । यह अध्रुव है, अनित्य है और अशाश्वत है ( 71 ) । आचारांग उनके प्रति आश्चर्य प्रकट करता है जो मृत्यु के द्वारा पकड़े हुए होने पर भी संग्रह में आसक्त होते हैं (66)। मृत्यु की अनिवार्यता हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा का कारण बन सकती है। कुछ मनुष्य इससे प्रेरणा ग्रहण कर अनासक्ति की साधना में लग जाते हैं। जब मूर्च्छित मनुष्य को संसार की निस्सारता का भान होने लगता है (54), तो इसकी मूर्च्छा की सघनता धीरे-धीरे कम होती जाती है और वह अध्यात्म मार्ग की ओर चल पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यदि अध्यात्म में प्रगति किया हुआ व्यक्ति मिल जाए तो भी मूर्च्छित मनुष्य जागृत स्थिति में छलाँग लगा सकता है (77) | इस तरह से बुढ़ापा, मृत्यु, धन-वैभव का नाश, संसार की निस्सारता और जागृत मनुष्य (मुनि अनगार) के दर्शन - ये सभी मूर्च्छित मनुष्य को आध्यात्मिक प्रेरणा देकर उसमें स्वअस्तित्व का बोध पैदा कर सकते हैं। Jain Educationa International आन्तरिक रूपान्तरणः- आत्म जागृति अथवा स्व-अस्तित्व के बोध के पश्चात् आचारांग साधक को (मनुष्य को ) चारित्रात्मक आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व का निरूपण करते हुए साधना के ऐसे सारभूत सूत्रों को बतलाता है, जिससे उसकी साधना पूर्णता को प्राप्त हो सके। कहा है कि हे मनुष्य! तू ही तेरा मित्र है (59), तू अपने मन को रोककर जी (60) जो सुन्दर चित्तवाला है, वह व्याकुलता में नहीं फंसता है (69), तू मानसिक विषमता (राग-द्वेष ) के साथ युद्ध कर, तेरे लिए बाहरी व्यक्तियों से युद्ध करने से क्या लाभ (74) बंध (अशांति) और मोक्ष (शान्ति) तेरे अपने मन में ही है (72)। धर्म न गाँव में होता है न जंगल में, वह तो एक प्रकार का आन्तरिक रूपान्तरण है ( 80 ) । कहा गया है कि जो ममत्व - बुद्धि को छोड़ देता है, वह ममत्ववाली वस्तु को छोड़ता है, जिसके लिए कोई ममतावाली वस्तु नहीं है, वह ही ऐसा ज्ञानी है (मुनि है) जिसके द्वारा अध्यात्म पथ जाना गया है (40)। साधना के सूत्र :- आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को समझाने के बाद आचारांग ने हमें साधना की दिशाएँ बताई हैं। ये दिशाएँ ही साधना के सूत्र हैं। अतः इन पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। ये सूत्र हैं1. अज्ञानी मनुष्य का बाह्य जगत् से सम्पर्क उसमें आशाओं और इच्छाओं को जन्म दे देता है। मनुष्यों से वह अपनी आशाओं की पूर्ति चाहने लगता है और वस्तुओं की प्राप्ति के द्वारा वह इच्छाओं की तृप्ति चाहता है। इस तरह से मनुष्य आशाओं और इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। ये ही उसके मानसिक For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229982
Book TitleAcharang Sutra me Shraman Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Kudal
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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