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________________ | 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी उत्तर - गुरुजनों की तथा साधर्मियों की सेवा शुश्रूषा करने से विनय प्रतिपत्ति अर्थात् विनय की प्राप्ति होती है। विनय को प्राप्त हुआ जीव सम्यक्त्वादि का नाश करने वाली आशातना का त्याग कर देता है, फिर वह जीव नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गतियों का निरोध कर देता है। गुरुजनों का गुणकीर्तन, प्रशंसा, भक्ति-बहुमान करने से मनुष्य और देवों में उत्तम ऐश्वर्य आदि सम्पन्न शुभ-गति का बन्ध करता है। सिद्धि सुगति-मोक्ष के कारणभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्रं रूप मोक्ष-मार्ग की विशुद्धि करता है। विनय-मूलक प्रशस्त सभी उत्तम कार्यों को सिद्ध कर लेता है और दूसरे बहुत-से जीवों को विनयवान बनाता है अर्थात् उसे देखकर बहुत से जीव विनयवान बनते हैं।अतः विनय आत्मा के लिए कल्याण रूप । ____ जिसके प्रति हमारे मन में नम्रता है, पूज्य भाव है, उसी के सामने मन की जिज्ञासा रखते हैं। महापुरुषों ने फरमाया है कि मन की बात उसी के सामने कहनी चाहिए जिसमें तीन गुण हों- 1. जो तुम्हारी बात को ध्यान से सुने, 2. जो तुम्हें गलत नहीं समझे और 3. जो तुम्हें सही सलाह/समाधान दे। यह तीनों गुण गुरु में होते हैं, लेकिन जब तक हमारा उनके प्रति नम्र भाव नहीं होगा तब तक हम संकोच करेंगे। अतः जिज्ञासा के समाधान के लिए समाधानकर्ता के प्रति पूर्णतः नम्रभाव होना चाहिए। आगमकारों ने भी उत्तराध्ययन सूत्र के पहले अध्ययन में विनय का फल बताते हुए कहा है णच्चा णमई मेहावी, लोट कित्ती से जायए। हवह किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा।।45 ।। भावार्थ - विनय के स्वरूप को जान कर बुद्धिमान् व्यक्ति नम्र बनता है, लोक में उसकी कीर्ति होती है और जिस प्रकार पृथ्वी सब प्राणियों के लिए आधार रूप है, उसी प्रकार वह भी सभी शुभ अनुष्ठानों एवं सद्गुणों का आधार रूप होता है। 3. शिष्यत्व- साधु हमारे गुरु हैं यह तो सर्वविदित हैं अर्थात् जैन संतों को हमारे धर्म-गुरु के रूप में समाज में स्थान प्राप्त है, लेकिन हम उनके शिष्य हैं या नहीं, यह चिन्तन का विषय है। क्योंकि शिष्यत्व (शिष्यपने का भाव) की व्याख्या करेंगे तो शि-शिक्षा (ज्ञान), ष-संतोष, य-याचक, त-तरलता (सरलता), व-विनय अर्थात् जिसके मन में सदैव ज्ञान पाने की ललक हो, संसार वृत्तियों में संतोष हो, गुरु से सदैव नवीन ज्ञान देने की याचना करता हो, जीवन में तरलता (सरलता) हो, आचरण में विनय हो- जिसमें ये पाँच गुण पाये जाते हैं वह शिष्यत्व भाव से युक्त है और जिसमें शिष्यत्व गुण पाया जाता है वही शिष्य है। सोचने का विषय यह है कि क्या ये गुण हममें पाये जाते हैं? क्या हमें हमारे गुरुओं के शिष्य के रूप में मान्यता प्राप्त है या अन्य किसी दूसरे रूप में....। क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ग्यारह में शिष्य के आठ गुण इस प्रकार बताए हैं अह अहहिं ठाणेहिं, सिक्खासीलेत्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे।।4।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229968
Book TitleSadguru evam Unke Saniddhya ka Labh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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